कविता 

मिलता हूँ रोज खुद से, तभी मैं जान पाता हूँ,
गैरों के गम में खुद को, परेशान पाता हूँ।
गद्दार इंसानियत के, जो खुद की खातिर जीते,
जमाने के दर्द से मैं, मोम सा पिंघल जाता हूँ।


ढलती हुयी जिंदगी को, नया नाम दे दो,
बुढ़ापे को तजुर्बे से, नयी पहचान दे दो।
कुछ हँस कर जीते तो कुछ रोकर मरते हैं,
किसी के काम आओ, कोई नया मुकाम दे दो।


माना की व्यस्त हूँ, जिंदगी की दौड़ में,
भूल जाता हूँ मुस्कराना, कमाने की हौड़ में।
थक कर आता हूँ शाम को, जब बच्चों के बीच मैं,
छोड़ आता हूँ सारे गम, गली के मोड़ में।


मुश्किलें आती हैं हरदम, मेरी राहों में,
मेरे हौसले का इम्तिहान लेती हैं।
बताती हैं डरना नहीं मुश्किलों से कभी,
नए रास्ते खोजने का पैगाम देती हैं।


अपनी शख्सियत को इतना ऊंचा बनाओ,
खुद का पता तुम खुद ही बन जाओ।
गैरों के लबों पर तेरा नाम, आये शान से,
मानवता की राह चल, गर इंसान बन जाओ।

किसी कविता में गर नदी सी रवानी हो,
सन्देश देने में न उसका कोई सानी हो।
छंद-अलंकार-नियमो का महत्त्व नहीं होता,
जब कविता ने दुनिया बदलने की ठानी हो।

कोई नागरिक मेरे देश का, नहीं रहे अछूता,
विकास का संकल्प हमारा, बना रहे अनूठा।
तुष्टिकरण का नहीं कोई, यहाँ जाप करेगा,
विकसित भारत, अब दुनिया का सरताज बनेगा।

केसरिया की शान, जगत में सबसे न्यारी,
भारत की धरती, दुनिया में सबसे प्यारी।
छः ऋतुओं का भारत, धारा पर एक मात्र है,
विश्व गुरु बनने की फिर से, कर ली है तैयारी।
फ़क़ीर के हाथ में, न कलम है न धन है,
मगर दुवाओं में किस्मत बदलने का ख़म है।
यह बहम नहीं हकीकत का फ़साना है,
माँ की दुवाओं में सारे जहाँ से ज्यादा दम है।

गिरगिट की तरह रंग बदलते हर पल,
तेरे लफ्जों में तेरा किरदार ढूँढूँ कैसे ?
कबि तौला कभी माशा, तेरे दाँव -पेंच,
तेरे जमीर को आयने में देखूं कैसे ?

मेरे गीत में शामिल थे तुम, तरन्नुम की तरह,
मेरे दर्द में शामिल हुए, बन दर्द की वजह।
सच्ची वफ़ा निभाई है, तुमने सदा मुझसे,
मेरे जनाजे में आये, अजनबी शख्स की तरह।

मंजिल की तलाश में, जो लोग बढ़ गए,
मंजिलों के सरताज, वो लोग बन गए।
बैठे रहे घर में, फकत बात करते रहे,
मंजिलों तक पहुँचना, उनके ख्वाब बन गए।


दुनिया के दर्द को नहीं, अपनी ख़ुशी को नए रंग देता हूँ,
आती जब भी मुसीबत कोई, “शुक्रिया” कह मैं हँस देता हूँ

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डॉ अ कीर्तिवर्धन

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