आता ही वह दिन सबके जीवन में 
जब एक स्नेहिल स्पर्श की सख्त ज़रूरत होती है - दवा की तरह ...



रश्मि प्रभा
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आखिर आज वह दिन आ ही गया जब  हमारे इलाके की महिला मैजिस्ट्रेट श्रीमती अहलूवालिया ‘नारी संस्थान’ की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में उनके साथियों के साथ साथ  मैं थाणे की एक खूबसूरत कालोनी में तय किए हुए निवास स्थान पर आई। नाम था “ज़िंदगी का स्वर्ग” सच में नाम को साकार करता हुआ दृश्य सामने था। चारों और हरियाली,  रंग-बिरंगे महकते फूल, कहीं फ़ुव्वारे, यहाँ वहां कई बेंचेस, तो कहीं फुलवारियों  की सजावट से खिला हुआ आंगन था, बस एक गुलशन का आभास हुआ । 

 गेट के अन्दर पाँव धरते  ही कार्यालय की प्राध्यापिका एवं अन्य महिलाएं हमारे स्वागत व आतिथ्य के लिए बाहर आंगन में मौजूद थीं। पहले हमें ऑफिस ले जाया गया,  जहाँ पर चाय नाश्ता करने के बाद कार्यालय एक छोटा का परिचय दिया,  और वहाँ के रहवासियों की दशा और मनोदशा के बारे में संक्षिप्तता से बताते हुए  एक तरह से उनका परिचय दिया। उसके उपरांत हम सब मिलकर  प्रार्थना घर पहुंचे, जहाँ  चालीस के करीब वृद्ध महिलाएं कुर्सियों पर बैठी हमारा ही शायद इंतज़ार कर रही थीं.!

    प्रार्थना घर की दीवारों पर महात्मा गाँधी , विवेकानंद, गुरु  नानक, महात्मा बुद्ध और जीसस की बड़ी मूर्तियां   टंगी हुई थीं. वातावरण पाकीज़गी से भरपूर था, अगरबतियों की सुगंध सांसों में श्रद्धा की खुशबू भर रही थी। सभी ने अपना अपना स्थान ग्रहण किया और श्रीमती अहलूवालिया जी का इशारा पाते ही मैं स्टेज पर गयी जहाँ मुझे पहले प्रार्थना और फिर एक भजन गाने का आदेश हुआ था. वातावरण अनुकूल था और प्राध्यापिका जी के एक और इशारे पर मैंने प्रार्थना का आगाज़ किया.
“जब जब मन घबराये तुम प्रार्थना करो, आराधना करो
कोई राह नज़र न आये तुम प्रार्थना करो, आराधना करो”

और उसके पश्चात एक और भजन जिसमें कई औरों के सुर मिलते चले गए, शायद बहुतों का वह मनपसंद गीत था। 

“इतनी शक्ति हमें देना दाता,   मन का विश्वास कमज़ोर हो ना
हम चले नेक रस्ते पे हमसे, भूल कर भी कोई भूल हो ना”

  हमारी महिलाओं ने वृधाश्रम की कार्यकर्ताओं की सक्रिय-सार्थकता की सराहना की और वृद्ध औरतों के मनोबल को बढ़ावा देने की सकारात्मक सोच को दाद दी...इस बातचीत की दौरान मेरी आंखें कुछ चहरों की झुर्रियों में गहरे उतरती चली गई, चहरों में धँसी बूढी आँखों को देखती रही, जिनमें कहीं सूनापन, तो कहीं आंसू थे और मैं उस अनकहे दर्द को पिघलते हुए देखती रही और उस आंच को अपने अंतर्मन की आत्मा तक में महसूस करती रही।  
   
आखिर मैं अपनी कुर्सी छोड़कर उठी और अपनी ही हमउम्र की उस औरत  के पास वाली कुर्सी पर बैठ गई, जो निरंतर प्रार्थना के दौरान अपने आंसू सुखाती रही. यह दर्द का सैलाब भी अजीब है, अपनी भंवर की पनाह में ज़िन्दगी को झुलाता रहता है, और हम किस्मत के नाम पर उसमें थाह पा लेते हैं।   मैं बैठे-बैठे उस औरत से, कुछ पूछने का साहस बटोरती रही., कुछ पूछने से पहले इतना ज़रूर आभास हुआ कि ये औरतें जो अपने घर के आंगन से, अपने परिवार से दूर आकर यहाँ बसी हैं , उनके भीतर भी कुछ ऐसे घाव होंगे जो रिश्तों ने दिये होंगे. क्या इसी ज़िंदगी में कोई ऐसा पड़ाव आयेगा जो उनकी ज़िंदगी की इस ख़िज़ाँ भरे दौर में बहार बनकर उनके ज़ख्मों का मरहम बन जाएगा? 

 "अदी मैं देवी नागरानी हूँ और आप.....?" मैंने हिम्मत जुटा कर अपना परिचय देते हुए अधूरा सा सवाल  किया। 

" मेरा नाम उषा शाहनी है. आपके भजन से विभोर हो गई  हूँ. " उसने अपनी नाम आँखें पोंछते हुए कहा।
"अदी फिर तो हम सिन्धी में बात करें? " मैंने अपनाइयत का इज़हार करते हुए नरमी से उसका हाथ सहलाते हुए कहा.

उस मन की थाह पाने के लिए मुझे गहराई तक उसके अंदर के चक्रव्यूह में घुसना था जहाँ मानव मन अपनी एक जंग लड़ रहा होता है. ज़िन्दगी भी क्या किसी कुरुक्षेत्र से कम है? बावला बचपन आता है और शोख जवानी उसका स्थान ले लेती है. फिर सप्तरंगी संसार के सपने, मन में बसी इच्छाएं, कामनाएं सभी  मदहोशी के आलम में जीवन बसर करने में सहकार होतीं हैं। और फिर जब उम्र ढलने लगती है तो उसके भी अनेक पड़ाव सामने आते हैं जिनसे गुज़रकर एक थकान का अहसास साथ बरक़रार रहता है. कुछ ऐसी ही वेदना की झुर्रियां मैंने उषाजी के चहरे पर देखी। 

" एक सिन्धी बहन से मिलकर यह उत्कंठा मन में जागी है...आप मुझे कुछ अपने जीवन के बारे में बताएं?  मैं आपके दिल को ठेस नहीं पहुंचाना चाहती पर आपके बारे में, इन परिवर्तित स्थितियों के बारे में ज़रूर जानना चाहूंगी। क्योंकि आज जहां आप खड़ी है, कल शायद मैं वहाँ रहूँ, आप अन्यथा न लें उषाजी।“  मैंने फिर चुपी साध ली, लेकिन मन में सोच का सिलसिला कायम रहा. आभास हुआ यह वर्तमान का दौर उसका नहीं, मेरा नहीं, हर जवानी का भविष्य है!

" चलो हम मेरे कमरे में बैठते हैं " यूं कहते ही वह उठकर जिस ओर  मुड़ी मैं उसके पीछे हो ली. रूम नंबर १११ में पहुंचकर वह पलंग पर बिराजी और अपने सामने ही एक कुर्सी सरकाकर, मुझे बैठने का  इशारे किया। 
उम्र की पगडंडी बड़ी ही संकरी है। इस दौर और उस दौर में जब दरार चौड़ी हो जाती है तो एक गहरे खालीपन को महसूस किया जाता है। जिसको भरने के लिए ममता को स्वार्थ की ईंटों में चुनवा दिया जाता है। घर की दहलीज से वृद्धाश्रम की दहलीज तक का सफ़र, एक कसैलेपन का स्वाद मुँह में भर जाती है। उम्र भर जिस शजर की शाखों पर घर-आँगन फला-फूला, आज वही आधार बिना परिचय खड़ा है। वाह नारी तेरी अजब सी है कहानी!!  
  
औरत के पात्र की गहराई और गरिमा में खुद औरत  डूब जाती है। इस तत्व पर कमलेश्वर जी की कलम खूब इंसाफ़ करती है  “ताज महल से जियादा खूबसूरत परिवार नामक संस्था का निर्माण करने वाली औरत खुद उसी में घुट-घुट कर दफ़न होती है, सबके लिये सुख और शुभ तलाश करती औरत अपने ही आँसुओं के कुँओं में डूबकर आत्महत्या करती है।“  

  जिन्दगी शब्दों में अगर समाधान ढूँढ़ती है तो वह बीमार जिन्दगी है। अपना सुख अगर दूसरों के दुख का कारण बन जाता है तो मनोभावों का अनादर होता है। मानवता लड़खड़ाती है, घबराती है और याचना करती है। सम्वेदना ही तो है जो शब्दों में सच का उजाला भर देती है। 

अपनी ही सोच के घने कोहरे से बाहर आते हुए, अपने जज़्बातों पर काबू पाकर मैंने उषाजी से पूछा “ भाभी आपके परिवार के बारे में बताएं और वे यहाँ जब आते है तो आपको कैसा लगता है?” मेरी आत्मीयता अब उसके मन की परतें खोलने को आतुर हुई , कुछ भीने भाव स्वर में वह बोलीं- “ क्या बताऊँ, कैसे कहूँ, मेरा परिवार तो अब यही है, जिनके साथ मैं रहती हूँ। पिछले हफ्ते मेरे पोते का जन्म दिन था, बेटा बहू मेरे हाथ से केक कटवाने के लिए उसे लेकर आए, साथ में यह फूल लेकर” उसने सामने रखे हुए मुरझाते फूलों की ओर इशारा करते हुए कहा..”   

मैं सुनती रही, अपने मन के भीतर में मचलते तहलके को महसूस करती रही, शायद इसलिए कि दर्द ही सबका सांझा होता है। उषा जी के आंसुओं की ज़बानी हमारी ज़िंदगी की तर्जुमानी थी वह। उनकी बातों के ज़रिये एक भाव सामने उजगार हुआ कि “परिवार और परिवेश में हर चीज- जानदार हो या बेजान- तब ही अपने होने का अर्थ प्रकट करती है, जब तक वह उपयोग में लाये जाने के काबिल है, अन्यथा वह अपनी सत्ता खो बैठती है।“ 
शायद उषा जी के अंतरमन का दबा हुआ दर्द पिघल चुका था, अब रवानी को रोक पाना मुश्किल था। उस दर्द की राह का तवील सफर शब्दों में शायद तय न हो पाय, पर आंसू तय करने में मददगार ज़रूर होते हैं। देखकर, सुनकर लगा दिल से दिल तक उस सांझे दर्द की एक सिसकती आहट दस्तक देती रही, जहां दर्द की रेखाएँ झुर्रियों में घुलमिल गयी। क्या दर्द को ज़ाहिर करने के लिए शब्दों का सहारा लेना ज़रूरी है? कितने ही सर्द अहसास जिन्दगी के खाते में दर्ज हो जाते हैं, क्या उस दर्द का कोई मुआवज़ा होता है?  दुनिया के हर कोने में स्वार्थ के विरुद्ध लड़ते- लड़ते  सब हार जाते हैं और अपने हिस्से का मुआवज़ा पाने को भटक रहे हैं।  
                                                     
“आपके बेटे का रवैया आपकी ओर कैसा है? कोई प्रतिकृया जब वे यहाँ आते हैं?”  
                                  
“बहन जाते जाते बेटा करीब आकर , मुझे अपने गले लगाते हुए कहता है- “माँ अपना खयाल रखना, कुछ चाहिए तो बता देना, अगली बार लेता हुआ आऊंगा! ”  

और उसकी आँखों से दर्द का दरिया बहता रहा, वह नमी शब्दों में थाह पाने लगी, खामोशी सिसकने लगी।  “मुझे क्या चाहिए? क्या उसे नहीं मालूम? जब वह छोटा था, रात में जब गीला हो जाता था तो मैं अपने आँचल से उसे सोखती और सुलाती, उसकी एक आवाज़ पर दौड़ी आती। उसने तो मुझसे कभी नहीं कहा उसे क्या चाहिए? आज मेरी ज़रूरत मुझसे जानना चाहता है! एक माँ को क्या चाहिए इस उम्र में? और अगर चाहिए भी तो वह क्या दे सकते हैं? जब तक पति था वह घर हमारा था। जो हमारा था, वह अब उनका हो गया है।  उनके बच्चे उनके है, उनकी ज़िमेदारियाँ उनकी है, और मैं ही पति के बाद शायद बोझ बन गई , एक न काम आने वाली चीज़ बन गई जो मुझे यहाँ छोड़ गए हैं, और अब पूछते है, क्या चाहिए? अपने ही घर से बेघर कर ने पश्चात उस पर कटे पंछी से पूछना की उड़ान का मज़ा क्या है?  पर कतर देने के पश्चात उनसे ऊंची उड़ान के बारे में पूछना कहाँ तक सही है? एक मुफलिस के घर जाकर उसके ठंडे चूल्हे को देखकर पूछना की “क्या पका है?” बेगैरती के सिवा और क्या हो सकता है? अपने घरों में ही हमें जो स्थान न दे पाये, उनके पास हमें देने के लिए रह भी क्या गया है?”  
                                                                                
सुनते सुनते मुझे लगा जैसे यह  हमारी कथा है , ये हमारी त्रासदी है, हमारे अपंग समाज की परिभाषा है। यह  हमारा विषय है, हमारी दुनिया है , पीड़ा भी अपनी है और परिवार भी अपना, उसमें रहने वाले बाबूजी, माँ जी भी अपने।  सब अपने हैं तो, उम्र ढलने पर यह परायापन क्यों आ जाता है? कहाँ से गैरत घर में घुस आती है। दिल जो रिश्तों को मान्यता की पहचान करवाती है, उसकी प्रभुता को मान्यता देती है, वही बेमुख हो जाए तो, तो रिश्तों की दलदल की गहराइयों में जिस कुरूपता का सामना करना पड़ता है, उसकी बदबू साँसों में समा जाती है। इन हालातों का कारण मानव मन है, और अगर तब्दीलियाँ लानी हैं तो शुरूवात फिर भी मानव मन से ही करनी होगी। बुराई की जड़ों को काटकर भलाई के बीज बोने की तक़रीरें करने वाले अपने अपने बनाए हुए उसूलों पर नयी इमारतें खड़ी करते है, जिन्हें नाम देते है स्वर्गधाम, वृद्धाश्रम, विधवाश्रम, साधू आश्रम, बूढ़ाश्रम, अपना घर,  धरती पर स्वर्ग आदि..... ! उफ़ बेघरों के लिए घर बनाने का सपना हो जैसे। हर चमकने वाली चीज़ सोना हो यह ज़रूरी तो नहीं।  हम सामाजिक प्राणी है, हमसे समाज बना है, शायद इसी कारण हम भी कहीं न कहीं इस कुरूप मानवता में आंदोलन में उतने ही भागीदार है जितने और सब हमारे आस-पास हैं। आदमीयत दलों में विभाजित हो रही है, देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं,  भोग रहे हैं, जी रहे हैं, पर कुछ कर नहीं पा  रहे हैं? हार  के पहले हार मान लेना स्वाभाविकता में शामिल हो रही है। कौन है जो अमानवता को अंकुश लगाएगा, ताकि मानवता अपनी पहचान फिर से पा सके, उन अपनों से इंसाफ कर सके? हर बार हर लड़ाई की पहल गांधी करे यह ज़रूरी तो नहीं?    
    
अपनी ही सोच के कोहरे में मैं न जाने कितनी देर धँसी रही। एक कर्मचारिणी मुझे कमरे में यह संदेश दे गई कि  “सब जाने को तैयार है, आप को बुलाया है”   

रास्ते भर कार में मैं चुप रही। पर सोचों को लगाम दे न पाई, उसी बद्गुमान हलचल में मुझे आज की दीवानी जवानी का भविष्य दिखाई दे रहा था। हम जो बीज बो रहे हैं क्या उसकी फ़स्ल हमारी चाहतों को पूरा कर पाएगी? क्या हम अपने आने वाली पीढ़ी से कुछ आस रख सकते है? क्या हमारे भविष्य के बच्चे हमें वह सब कुछ दे पाएंगे, जिनके स्वार्थी सुख के लिए हम अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति और उन अपनों को त्याग देते है, जो इस परिवार रूपी परिवेश की नींव है? वृद्धों को हाशिए पर ले जाने का पहला कारण है समाज में पारिवारिक के संदर्भ में सोच का बदलाव: ज़ियादा से ज़ियादा दो पीढ़ियाँ जहां साथ रह रही हैं, वहाँ तीसरी बुजुर्ग पीढ़ी के लिए घर में स्थान नहीं!!  

वर्तमान समस्याओं और ज़िन्दगी की पेचीदा तजुर्बों की तर्जुमानी करना इस क़लम के बस की बात नहीं.  कुछ कहने -लिखने के बावजूद भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है. बस खुद तो टटोलने की ज़रुरत है, इस बेपनाह  शोर में भी खामोशियाँ चीखती हुई ऐलान कर रही हैं कि जिन जड़ों के कन्धों पर पले बड़े , फले-फूले, जिनके आंगन में ज़िन्दगी की पाठशाला का पाठ पढ़ा, वे जडें निराधार क्यों हैं?  अपने घर आँगन की छाओं से दूर वृधाश्रम में पनाह पाने के लिए मजबूर किया जाता है, क्यों? कौन ख़ुशी से बेवतन होना चाहता है? कौन अपने पांव से आज़ादी के स्वर्ण कड़े निकाल कर गुलामी का लोहा पहनना चाहेगा? अपंग मानवता अपनी ही नादानियों की कीमत इससे ज़ियादा और क्या दे सकती है?  ऐसे लगता है जैसे ज़िंदगी बंट गई है, आदमी बंट गया है, ममता बांटी गई है, हर चीज़ के टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। ये न जाने हम कैसे भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ हमारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है. सवाल फिर भी उठता है कि अगर देंगे नहीं तो पाएंगे क्या? अकेलापन क्या होता है यह वही शजर बेहतर जनता है जिसकी हरी भरी शाखों के पते झड़ गए हों! वैसे भी रिश्तों की चादर जब महीन और झीनी हो जाती है तो उसे ओढना क्या, बिछाना क्या?    
                                                
बुढापा सहारा चाहता है और बिरले परिवार इस जाती हुई पीढी को सन्मान दे पाते हैं जिनके वे हकदार होते हैं . हमारे अवसाद को यही सांत्वना मिलती है कि , काश हर संतान , माता पिता के बुढापे की लाठी बने । यह ज़िन्दगी के आखरी पड़ाव के शुरू होने की त्रासदी है...!!
  • देवी नागरानी

रचनाकार परिचय: 11 मई 1949 को कराची (पाकिस्तान) में जन्मीं देवी नागरानी हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं। आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में “ग़म में भीगी खुशी” (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), “उड़ जा पँछी” (सिंधी भजन संग्रह 2007) और “चराग़े-दिल” (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं।…वर्तमान संपर्क : Devi Nangrani, 9-D, Corner View Society, 15/33 Road, Bandra, Mumbai 400050. Ph: 9987928358


6 comments:

  1. “ताज महल से जियादा खूबसूरत परिवार नामक संस्था का निर्माण करने वाली औरत खुद उसी में घुट-घुट कर दफ़न होती है, सबके लिये सुख और शुभ तलाश करती औरत अपने ही आँसुओं के कुँओं में डूबकर आत्महत्या करती है।“

    अपना सुख अगर दूसरों के दुख का कारण बन जाता है तो मनोभावों का अनादर होता है। मानवता लड़खड़ाती है, घबराती है और याचना करती है। सम्वेदना ही तो है जो शब्दों में सच का उजाला भर देती है।

    सोच में डालती रचना !!

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  2. बावला बचपन आता है और शोख जवानी उसका स्थान ले लेती है. फिर सप्तरंगी संसार के सपने, मन में बसी इच्छाएं, कामनाएं सभी मदहोशी के आलम में जीवन बसर करने में सहकार होतीं हैं। और फिर जब उम्र ढलने लगती है तो उसके भी अनेक पड़ाव सामने आते हैं जिनसे गुज़रकर एक थकान का अहसास साथ बरक़रार रहता है.

    क्या दर्द को ज़ाहिर करने के लिए शब्दों का सहारा लेना ज़रूरी है? कितने ही सर्द अहसास जिन्दगी के खाते में दर्ज हो जाते हैं, क्या उस दर्द का कोई मुआवज़ा होता है? दुनिया के हर कोने में स्वार्थ के विरुद्ध लड़ते- लड़ते सब हार जाते हैं और अपने हिस्से का मुआवज़ा पाने को भटक रहे हैं।



    न जाने कितने चेहरे घूम गये नजरो के सामने .जो आज किसी आश्रम में नही हैं परन्तु इस अपने पन की , प्यार की एक बूँद को तरस रहे हैं घर का एक कोना उनके लिय महफूज़ हैं जहा वह अकेलेपन की त्रासदी अकेले ही उनके मौन से बाते करती हैं .... बहुत ही सशक्त ,सोचने को मजबूर करती रचना

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  3. बुढापा सहारा चाहता है और बिरले परिवार इस जाती हुई पीढी को सन्मान दे पाते हैं जिनके वे हकदार होते हैं . हमारे अवसाद को यही सांत्वना मिलती है कि , काश हर संतान , माता पिता के बुढापे की लाठी बने । यह ज़िन्दगी के आखरी पड़ाव के शुरू होने की त्रासदी है...!!

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  4. ये हमारी त्रासदी है, हमारे अपंग समाज की परिभाषा है। यह हमारा विषय है, हमारी दुनिया है , पीड़ा भी अपनी है और परिवार भी अपना, उसमें रहने वाले बाबूजी, माँ जी भी अपने। सब अपने हैं तो, उम्र ढलने पर यह परायापन क्यों आ जाता है? कहाँ से गैरत घर में घुस आती है।
    बेहद सार्थकता भरे सवालों के साथ सशक्‍त प्रस्‍तुति

    आपका आभार इस प्रस्‍तुति के लिये

    सादर

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  5. एक स्नेहिल स्पर्श की सख्त ज़रूरत होती है , यकीनन है। राशिम प्रभा का आभार जो यह मरहम मेरी बेहाल त्रासदी के शब्दों को को लगाया और स्नेह भरे पाठकों की प्रतिकृया मेरे लिए प्रोत्साहन का द्वार खोलती है॥
    नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित ...

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  6. जब अपनों को साथ रखने में कष्ट होने लगे तो अपनापन कहाँ रहा, दयनीय स्थिति हो रही है समाज की।

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