कुछ लोग उतर जाते हैं दिल में
बिन आहट ,बिन दस्तक के
जैसे हो प्रारब्ध का कोई रिश्ता
खींचे चले आते हैं बिन डोर के ।

सुषुप्त थीं अहसासों की गलियाँ
झकझोर दिया जादुई तरन्नुम में
धड़कने लगीं थमती हुईं साँसे
यह क्या ग़ज़ब किया पल भर में ।

न देखा, न जाना गहराई से ,पर
आवाज़ की कशिश उनकी ऐसी
कि लोकोलाज छोड़ उन तक
पहुँच जाती पतझर की पत्ती सी ।

अब देखो उनके जुल्मो सितम
कहते  हैं उन्हें भूल जाओ
अग्नि परीक्षा कहाँ चाहा मैंने कि
झुलस कर तुम घायल हो जाओ ।

आहत कर मुझे तुष्टि पाते हो
तुम अपने अहम् की
यह भी नायाब तरीका है तुम्हारा
मुझे अपने पास लाने की ।

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() कविता विकास 
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शिक्षिका ,लेखिका ,कवयित्री ,मंच -संचालक ,उद्घोषिका धनवाद निवासी कविता के लिए कविता अपने हृदय के भावों को जीवंत रूप देने का एक सशक्त साधन है । परिवेश और अनुभव इनके प्रेरणास्रोत हैं ,जिन्हें पन्नों पर उतारकर इन्हें अपार संतुष्टि मिलती है ।

7 comments:

  1. अच्छी अभिव्यक्ति

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  2. आहत कर मुझे तुष्टि पाते हो
    तुम अपने अहम् की
    यह भी नायाब तरीका है तुम्हारा
    मुझे अपने पास लाने की ।

    स्त्री मनोभावों का सुन्दर चित्रण

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  3. आहत कर मुझे तुष्टि पाते हो
    तुम अपने अहम् की
    यह भी नायाब तरीका है तुम्हारा
    मुझे अपने पास लाने की ।....waah.. bahut sahi chitran bhawon ke madhayam se ....adhiktar log aisa hi karte hain ....par khiseeyani billi khambha noche ye kyon bhul jaate hain?

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  4. भावपूर्ण अभिव्यक्ति !
    किसी को आहत कर के कोई कैसे तुष्टि पाता है....
    आज नहीं तो कल... अपने किये का फल...हर कोई पाता है...
    ~सादर !

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  5. भावपूर्ण प्रस्तुति!!

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  6. ये डोर है बड़ा सूक्ष्म .. दिखता ही नहीं .. एहसासों के ज़रिये ही महसूस होता है .. या यूँ लगता है कि कुछ है .. बिना डोर के .
    सुन्दर अभिव्यक्ति है.

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  7. अच्छी रचना है कविता जी
    आभार

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