वह लड़कियां
बेचने-ख़रीदने का काम
नहीं करती. वह तो बस मां है

आदि से अंत तक मां

बस एक मां ! खुले बाज़ार में

अपनी चार-चार बेटियों को

बोली पर चढ़ा देने का अर्थ

लड़कियों की तिजारत 

कहां से हो गया? 

यह उसकी तरफ़ से ऐलान है



जो भी सुन ले, उसके नाम
कि नौ महीने से छः साल 
तक की बेटियों को पाल 

नहीं सकती है वह.

किसके गाल पर तमाचा है


यह सच? इसमें क्या व्यक्त
नहीं होती इक मां की घनघोर 
हताशा और उसका कनफोड़ू



हाहाकार? जानती है वह 
कि ऐसे तो मर ही जाएंगी बेटियां
होकर भूख और कुपोषण की शिकार.

उसने लगाई होगी बोली जब

तो क्या उसने दबाया नहीं होगा


अपनी चीख को? भद्र जन

नापसंद करते हैं कविता में 

चीख और हाहाकार के आजाने को

क्योंकि विघ्न डालता है यह 

उनके आनंद-रस-बोध में 

जो होना ही चाहिए कविता में,
कुछ भी होता रहे चाहे समाज में

जिसे कहते हैं हम मनुष्य-समाज !


इसलिए यह है सिर्फ़ एक बयान

एक हलफ़िया बयान !

बक़लम खुद...पूरे होशो हवास में...

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मोहन श्रोत्रिय


70 के दशक में चर्चित त्रैमासिक 'क्‍यों' का संपादन - स्‍वयंप्रकाश के साथ. राजस्‍थान एवं अखिल भारतीय शिक्षक आंदोलन में अग्रणी भूमिका - 1980-84 के बीच. महासचिव, राजस्‍थान विश्‍वविद्यालय एवं महाविद्यालय शिक्षक संघ तथा राष्‍ट्रीय सचिव, अखिल भारतीय विश्‍वविद्यालय एवं महाविद्यालय शिक्षक महासंघ. 18 किताबों का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद. लगभग 40 किताबों के अनुवाद का संपादन. जल एवं वन संरक्षण पर 6 पुस्तिकाएं हिंदी में/2 अंग्रेज़ी में. अनेक कविताओं, कुछ कहानियों तथा लेखों के अनुवाद पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. ख़ुद की भी कुछ कविताएं तथा लेख यत्र-तत्र प्रकाशित. 'रेकी' पर दो पुस्‍तकें: 'रेकी रहस्‍य' और Decoding Reiki'. ब्लॉग संपर्क : http://sochi-samajhi.blogspot.in/

7 comments:

  1. ऐसी बेबस माँओं की कोख से जनी ये बेटियाँ किस बदनसीबी को लेकर पैदा हुई होंगी? अगर इनकी तिजारत भी हुई तो कोई इन्हें लेकर बेटी बनाकर पलने केलिए नहीं लेगा बल्कि इस समाज में कैंसर की तरह फैले हुई भेडिये या तो इन्हें कल अपनी कमाई का साधन बनाने केलिए ले जायेंगे या फिर घर में पलने वाली एक नौकरानी को. एक गरीब की बेटी किसी अच्छे घर की बेटी बनने का सपना देख ही नहीं सकती है.

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  2. सच में यह एक तमाचा ही है हमारे समाज पर,
    लाचार वो नहीं, समाज है.
    उसने तो बस एक सवाल किया है जो वाजिब है !!
    जवाब कौन देगा ....

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  3. नारी होती जा रही, दिन प्रति दिन हुशियार ।

    जागृति आती जा रही, नैया होगी पार ।

    नैया होगी पार, चार बेटी न होंगी ।

    आये नए विचार, पुराने अब तक भोगी ।

    नारीवादी समय, शीघ्र ही आ जायेगा ।

    खुद का नव अंदाज, जगत को भी भाएगा ।।

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  4. सच है कवितायेँ भी अन्य साहित्य विधाओं की तरह सामाजिक सरोकारों से पीछे कैसे रह सकती हैं.

    बहुत सुंदर.

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  5. रचना नहीं, शब्द नहीं, आज के समाज की चलती फिरती तस्वीर है...मार्मिकता शब्दों से नहीं, अहसासों से झलक रही है, पीढ़ा रिस रही है जिनमें से॥ बहुत बहुत मार्मिक बिम्ब के लिए बधाई

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