जब मंद पवन के झोंके से 
तरु की डाली हिलती है 
पंछी  के  कलरव से 
कानों में मिश्री घुलती है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

जब नदिया की कल - कल से 
मन स्पंदित होता है 
जब सागर की लहरों से 
तन  तरंगित  होता है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

रेती का कण - कण भी जब 
सोने सा दमकता  है 
मरू भूमि में भी जब 
शाद्वल * सा  दिखता है 
तब लगता है कि तुम 
यहीं - कहीं हो 

बंद पलकों पर भी जब 
अश्रु- बिंदु चमकते हैं 
मन के बादल   घुमड़ - घुमड़ 
जब इन्द्रधनुष सा रचते हैं 
तब लगता है कि तुम 
यहीं कहीं हो ...यहीं कहीं हो .
  
संगीता  स्वरुप 

परिचय :
 

जन्म :             ७ मई १९५३ 
जन्म स्थान:     रुड़की ( उत्तर प्रदेश ) 
शिक्षा :             स्नातकोत्तर ( अर्थशास्त्र )
व्यवसाय :       गृहणी ( पूर्व में केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका रह चुकी हूँ )
शौक :              हिंदी साहित्य पढ़ने का , कुछ टूटा फूटा अभिव्यक्त भी कर लेती हूँ 
निवास स्थान:  दिल्ली 
 
ब्लोग्स -----------      http://geet7553.blogspot.com/ 
                           http://gatika-sangeeta.blogspot.com/
 
 प्रकाशित पुस्तक --- उजला आसमां ( काव्य संग्रह) 

15 comments:

  1. मरू भूमि में भी जब
    शाद्वल सा दिखता है
    तब लगता है कि तुम
    यहीं - कहीं हो

    मन:स्थिति का और एहसास का खूबसूरती से बयाँ

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  2. खूबसूरत अहसासो से लबरेज रचना

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  3. बहुत ही खूबसूरत भावो के साथ ...........दिल को छूती रचना !

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  4. अनुपम रचना संगीता जी ! बहुत सुन्दर !

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  5. bahut acchi rachna jivant prastuti.....

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  6. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २६/६ १२ को राजेश कुमारी द्वारा
    चर्चामंच पर की जायेगी

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  7. SEEDHE - SAADE SHABDON MEIN SEEDHE -
    SAADE BHAAV MAN KO CHHOO GAYE HAIN .

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  8. बहुत भावपूर्ण रचना...

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  9. बहुत सुंदर ....कोमल भावपूर्ण रचना ....

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  10. क्या कहने ...
    दिल को छू लेनेवाली रचना...
    बहुत सुन्दर...
    :-)

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  11. हर बात से लगता है तुम हो , यही हो ...
    सुन्दर !

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  12. वाह! बहुत सुन्दर गीत दी...
    सादर बधाई स्वीकारें.

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