तब मकसदें थीं
फिर एक खुली हवा
अब सबकुछ आधुनिक होकर भी
बन्द कमरे सा हो गया ...

रश्मि प्रभा

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पास्ट-परफेक्ट, प्रेजेंट-टेंस


वो क्रांतियों के दिन थे.
और हम,
मार दिए जाने तक जिया करते थे.
सिक्कों में चमक थी.
उंगलियाँ थक जाने के बाद चटकती भी थीं.
हवाएं बहती थीं,
और उसमें पसीने की गंध थी.
पथरीले रास्तों में भी छालों की गिनतियाँ रोज़ होती थी.
रोटियां,
तोड़के के खाए जाने के लिए हुआ करती थीं.
रात बहुत ज्यादा काली थी,
जिसमें,
सोने भर की जगह शेष थी.
और सपने डराते भी थे.
अस्तु डर जाने से प्रेम स्व-जनित था.
संगीत नर्क में बजने वाले किसी दूर के ढोल सरीखा था.
हमें अपनी गुलामी चुनने की स्वतंत्रता थी

ये अब हुआ है,
सभी डराने वाली चीज़ें लगभग लुप्त हो चुकी हैं...
...डायनासौर, सपने, प्रेम.
हवाओं ने 'बनना' शुरू कर दिया है.
और खुश्बुओं की साजिश,
झुठला देती हैं,
मेहनत के किसी भी प्रमाण को.
बाजारों में सजी हुई है रोटियाँ और,
रात के चेहरे में
'गोरा करने वाली क्रीम' की तरह,
पुत चुकी है निओन-लाईट.
इस तरह.
सोने भर की जगह में किया गया अतिक्रमण.

यूँ तो इस दौर में...
मरने का इंतज़ार,
एक आलसी विलासिता है.
पर, स्वर्ग की सीढ़ी यहीं कहीं से हो के जाती है.
...यकीनन हम स्वर्ग-च्युत शापित शरीर हैं.
और शांति...
एक 'बलात' आज़ादी.

दर्पण साह
दर्पण साह

10 comments:

  1. अब सबकुछ आधुनिक होकर भी
    बन्द कमरे सा हो गया ...
    बिल्‍कुल सच
    बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  2. यथार्थ को दिखाती प्रस्तुति..
    बहुत सुन्दर!
    कुँवर जी,

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  3. बहुत खूबसूरत... दर्पण जी के ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं इसे..

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  4. वाह क्या कहने बहुत ही बढ़िया जानदार अभिव्यक्ति...

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  5. यकीनन हम स्वर्ग-च्युत शापित शरीर हैं.

    सुन्दर रचना...

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  6. दर्पण जी ने दर्पण दिखाया ..
    बहुत सुन्दर .. यथार्थ परक

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  7. यूँ तो इस दौर में...
    मरने का इंतज़ार,
    एक आलसी विलासिता है.

    सुन्दर

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  8. अति उत्तम! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है.. बहुत शुभकामनाएं!

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