देर तक  मुट्ठी  में बंद, उस 
चिपचिपी चॉकलेट का स्वाद 
गेट से लौटती  नज़र
घड़ी की टिकटिक और 
कदमों तले चरमराते 
सूखे पत्तों की आवाज़

वो बेख्याली में आ जाना 
परेशान करती, 
सूरज की किरणों के बीच 
और मेरे चेहरे से उछल कर 
तुम्हारे काँधे पर जा बैठना  
खरगोश के छौने सा 
उस  धूप के टुकड़े का 
जरा सी तेज आवाज 
और हडबडा कर,  उड़ जाना 
उस पतली डाल से 
झूलती बुलबुल का

नामालूम सा 
अटका....पीला पत्ता 
निकाल  देना बालों से
अनजाने ही,ले लेना
भारी बैग...हाथों से 

ठिठका पड़ा है वहीँ, वैसा ही  सब

अंजुरी में उठा, 
ले आऊं उन लमहों   को 
पास  रखूँ
बतियाऊं उनसे, दुलराऊ उन्हें 
पर वे उँगलियों  से फिसल 
पसर  जाते हैं, फिर से
उन्हीं लाइब्रेरी  की सीढियों पर

नहीं आना उन्हें, 
इस सांस लेने को 
ठौर तलाशती 
सुबह-ओ-शाम में 
नहीं,बनना हिस्सा 
कल के सच का
झूठे  आज में 

सिर्फ 
आती है,खिड़की से, हवा की लहर
लाती है 
अपने साथ
हमारी हंसी की खनक 
नल से झरझर बहते पानी में 
गूंज जाता  है,
अपनी बहस का स्वर  
गैस की नीली लपट से 
झाँक जाती है, 
आँखों की शरारती चमक
 
सब कुछ तो है,साथ 
वो हंसी..वो बहस...वो शरारतें
फिर क्या रह गया वहाँ..
अनकहा,अनजाना,अनछुआ सा 
किस इंतज़ार में....


रश्मि  रविजा 
मुंबई , महाराष्ट्र 

आत्मकथ्य:
"पढने का शौक तो बचपन से ही था। कॉलेज तक का सफ़र तय करते करते लिखने का शौक भी हो गया. 'धर्मयुग',' साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'मनोरमा ' वगैरह में रचनाएँ छपने भी लगीं .पर जल्द ही घर गृहस्थी में उलझ गयी और लिखना,पेंटिंग करना सब 'स्वान्तः सुखाय' ही रह गया . जिम्मेवारियों से थोडी राहत मिली तो फिर से लेखन की दुनिया में लौटने की ख्वाहिश जगी.मुंबई आकाशवाणी से कहानियां और वार्ताएं प्रसारित होती हैं..यही कहूँगी "मंजिल मिले ना मिले , ये ग़म नहीं मंजिल की जुस्तजू में, मेरा कारवां तो है" 

9 comments:

  1. वाह! वैसे यह कविता पढ़ी है पहले। शायद रश्मि जी के ब्लॉग पर। बहुत ही खूबसूरत एहसासों को समेटा है कविता में।

    ReplyDelete
  2. वाह ...बहुत ही बढि़या प्रस्‍तुति।

    ReplyDelete
  3. बहुत खूबसूरत अहसास रेशमी धूप से...

    ReplyDelete
  4. बहुत ही बढि़या प्रस्‍तुति

    ReplyDelete
  5. नहीं,बनना हिस्सा
    कल के सच का
    झूठे आज में
    जो चित्र खींचा है उसे महसूस भर कर पा रहा हूँ ...बयान नहीं कर सकता .....

    ReplyDelete
  6. नहीं,बनना हिस्सा
    कल के सच का
    झूठे आज में
    जो चित्र खींचा है उसे महसूस भर कर पा रहा हूँ ...बयान नहीं कर सकता .....

    ReplyDelete
  7. नहीं,बनना हिस्सा
    कल के सच का
    झूठे आज में
    चाहे अनचाहे हिस्सा बनना ही पडता है

    बहुत खूबसूरत चित्रांकन (शब्द) ...

    ReplyDelete

 
Top