व्यंग्य 

चलो अच्छा हुआ बापू की कुछ अंतिम निशानियाँ भी बिक गईं। हमारे मुल्क के लिए तो वैसे भी ये चीजें उनके विचारों की तरह बेकार ही थीं। इन फालतू चीज़ों के बिक जाने पर जो लोग हो हल्ला मचा रहे हैं वे वास्तव में हमारी उदात्त आर्थिक सोच से चिढ़ते हैं। अब यदि बाज़ार में महात्मा गाँधी के सिद्धांतों और विचारों की कोई मांग नहीं है तो इसमें सरकार क्या कर सकती है। वो उनके उस आउटडेटिड ऐनक और चरखे का क्या करती, जिसे लंदन में नीलाम किया गया। वैसे भी वह सरकार, जिसकी इज्जत की आये दिन तमाम अरबों रुपए के महाघोटालों के चलते सरेआम बोली लगती हो, वो ऐसे दो कौड़ी के पचड़े में भला क्यों पड़े। आखिर सरकार का भी एक स्तर होता है। हमारे यहाँ की आम जनता के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह या तो भविष्य के सपनों में खोयी रहती है या अतीत की धरोहर को लेकर रोती -बिसुरती रहती है। वह वर्तमान की धरती पर कभी कभार ही लौटती है और जब आती है तो उसके पास सरकार का गरियाने का एकमात्र शगल होता है।

 वास्तव में समस्या सरकार की करनी में नहीं वरन जनता की उस भावुक सोच में है जो कभी शिवाजी की तलवार के विदेश में बिकने से व्यथित हो जाती है तो कभी महाराणा प्रताप के भाले पर जंग लग जाने को लेकर आन्दोलित हो जाती है। जनता की समझ में ये बात क्यों नहीं आता है कि अत्याधुनिक हथियारों और प्राविधि से लैस इस समय में ये तलवार, भाला, चश्मा और चरखा किस काम का है और जो चीज़ बेकार है वह बिके, उस पर जंग लगे या फिर कूड़ेदान में सडती रहे उससे फर्क ही क्या पड़ता है। हमारी पुरातन को लेकर अतिशय भावुकता ही है जो हमारी तरक्की के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। भावुकता से भय का संचार होता है। हम इस सोच से आगे क्यों नहीं निकलते। इसके आगे वैसी ही जीत है जैसी एक विशिष्ट ब्रांड की कोल्ड ड्रिंक पीने से मिलती है। अब यह बात तो सबको पता है कि महात्मा गाँधी की इस देश के लिए उतनी ही उपादेयता है जितनी किसी खुदाई में मिली हडप्पाकालीन मिट्टी के किसी अलंकृत पात्र की, जो हमें रोमांचित तो करता है, पर रहता है निष्प्रयोज्य ही। बापू का इतिहास हमें गौरवान्वित करता है पर उस गौरव का केवल सांकेतिक और भावनात्मक महत्व ही है। 

करेंसी नोट पर मुद्रित बापू अच्छे लगते हैं। सरकारी कार्यालयों और पुलिस थानों में टंगी गाँधी जी की तस्वीरें वहाँ की बेरंग दीवारों की शोभा तो बढ़ाती हैं और उसके मुलाजिमों को उसके जरिये रिश्र्वत के लिए संकेत करने की सुविधा भी देती हैं। पुलिस के इस अलिखित कानून को सब जान गए हैं कि बापू की मुद्रा वाला करारा नोट दो अन्यथा उनकी लाठी अपना काम करेगी। जगह जगह लगी उनकी प्रतिमाएं सारी दुनिया को यह संदेश देने के लिए हैं कि हम इतने कृतघ्न नहीं कि राष्ट्रपिता को भुला बैठें। साल में एकबार उनके जन्म दिन पर उनकी प्रशस्ति में गाल बजाना हम कभी नहीं भूलते। उनकी पुण्यतिथि पर गाने योग्य भजन हमें कंठस्थ हैं इसलिए खूब मगन होकर गाते हैं। इससे अधिक कोई क्या कर सकता है? बापू के नश्वर शरीर को इस धरती को त्यागे अरसा हुआ। वह अब इतिहास का हिस्सा हैं। उनके विचार और उनसे जुड़ी यादें अभी भी जनमानस को बेचैन कर देती है। सरकार शशोपंज में है कि उनके विचारों को खत्म करने के लिए क्या करे। विचार और भावनाएं इतनी आसानी से कहाँ मरते हैं।

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निर्मल गुप्त 

प. बंगाल की एक सैनिक छावनी पानागढ़ में जन्म .कलकत्ता में बचपन बीता .पढाई लिखाई मेरठ में हुई .पत्र-पत्रिकाओं में कहानी ,कविता ,बाल कथा ,व्यंग्य प्रकाशित .कुछ कहानिओं और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओँ में अनुवाद .

6 comments:

  1. समसामयिक विचारों से ओतप्रोत बहुत बढ़िया व्यंग्य, पढ़कर आनंद आ गया !

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  2. बहुत बढ़िया व्यंग्य .....अच्छा लगा !

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  3. बहुत बढ़िया व्यंग्य!...ऐसाही हो रहा है हमारे देश में!

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  4. सरकार शशोपंज में है कि उनके विचारों को खत्म करने के लिए क्या करे। विचार और भावनाएं इतनी आसानी से कहाँ मरते हैं।

    बापू के विचार जिन्दा जरूर हैं पर उनपर अमल कहाँ होता है...सटीक व्यंग्य !

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  5. कभी कभी पढने को मिलते हैं ऐसे अच्छे व्यंग
    बहुत बढिया

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  6. इससे अधिक कोई क्या कर सकता है?

    सही बात है इससे ज्यादा क्या और क्यों. जबरदस्त कटाक्ष.

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