ग़ज़ल 


हवा में घुला हुआ यह जहर क्यों है
फरेब के जैसा मेरा शहर क्यों है

भोला दीखता है उसके चहरे जैसा -
हालात साजिशों की तरह मगर क्यों है

फूल भी है, शबनम भी, गुलाब भी,
किसी के नसीब में हरदम पत्थर क्यों है

आँखों में जिसने उम्र भर सहेजा था आसमां,
कटे हुए आज उसी के पर क्यों है

उठ रही है आंधियां, बिखर रहा है कुछ,
बनबास के जैसा आज यह घर क्यों है

रात-भर ये दुनिया आराम से सोती है,
मेरे दिल में बेचैनी हर पहर क्यों है

नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
नदी के पार फिर उसका घर क्यों है .
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बसंत आर्य 
http://thahakaa.blogspot.com/




9 comments:

  1. नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
    नदी के पार फिर उसका घर क्यों है .
    agni pariksha ke liye......

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  2. आँखों में जिसने उम्र भर सहेजा था आसमां,
    कटे हुए आज उसी के पर क्यों है.........बहुत खुबसूरत गजल...

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  3. हवा में घुला हुआ यह जहर क्यों है
    फरेब के जैसा मेरा शहर क्यों है

    भोला दीखता है उसके चहरे जैसा -
    हालात साजिशों की तरह मगर क्यों है
    बहुत सुन्दर गज़ल

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  4. बहुत सुन्दर.

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  5. सुन्दर गज़ल..

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  6. क्या बात है!
    अंतिम पंक्तियाँ तो बेहतरीन हैं..

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  7. नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
    नदी के पार फिर उसका घर क्यों है
    mujhe ye panktiyan sabse acchi lagi

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  8. नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
    नदी के पार फिर उसका घर क्यों है
    यही तो विसंगति है ..
    बहुत सुन्दर

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