दोष न टीवी का न बनानेवालों का
अश्लीलता ही चाहिए सबको
जितनी अश्लीलता , उतना मार्केट वैल्यू
टीआरपी देखिये और जानिए
बेसब्री से इंतज़ार करते हैं लोग
........ निजता प्यारी हो तब न
यहाँ तो निजता को भुनाया जाता है
सच के नाम पर
झूठ बेचा जाता है !




रश्मि प्रभा


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सच का सामना या .....निजता का मोल


आज के दौर में निजता यानि की प्राइवेसी का भी अपना मूल्य है । उस निजता का जो कभी अनमोल हुआ करती थी । तभी तो सच को स्वीकार करने के नाम पर एक आम हिन्दुस्तानी से लेकर जाने माने चहेरों तक, सभी की हिम्मत देखते ही बनती है । इसे मनोरंजन कहिये या स्वयं के जीवन के सारे भेद खोलने के मूल्य का खेल, करना बस इतना है कि आइये और सच को स्वीकारिये । सच, जो आपके अपने जीवन से जुड़ा है । सच ,जिसे आपने अभी तक किसी अपने से भी साझा न किया हो ।

दर्शकों के मनोविज्ञान को भलीभांति समझने वाले टीवी चेनल्स तो ' दर्शक अपने विवेक से काम लें ' इतना कहकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं । ऐसे में स्वयं दर्शकों को सचमुच विवेक और सजगता से काम लेना चाहिए । क्योंकि इन कार्यक्रमों को बनाने वाले और इनका हिस्सा बनने वाले तो अपने आर्थिक हित साधने में जुटे हैं । तभी तो जो लोग जीवन भर अपनों के सामने मुखौटा पहने रहते हैं वे टीवी के ज़रिये सबके सामने सच बोलने में जुटे हैं ।

हमारी निजता का संरक्षण हमारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी । ऐसे में मनोरंजन के नाम उसका मोल लगाकर परोसने का काम खूब फल फूल रहा है । अपने निजी जीवन को बेपर्दा करने के लिए मानो होड़ सी लगी है । सच कहने के नाम पर अपने ही जीवन के किस्से बेचे जा रहे हैं । ऐसा हो भी क्यों नहीं ? , हर सवाल , हर जवाब और हर हर आंसू का तयशुदा मोल जो मिलता है ।

कहीं रियलिटी टीवी के नाम पर घर के झगड़े सुलझाये जा रहे हैं तो कहीं सच कहने के बहाने ऐसा कुछ कहा जा रहा है जो व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर मात्र बिखराव ही ला रहा है । एक समय था जब आम आदमी से लेकर चर्चित चहरों तक , हर कोई यही चाहता था कि उसके जीवन की निजी बातें लोगो के सामने ना आयें । ऐसे में टीआरपी के लिए रचे जा रहे आडम्बर में आम आदमी का यूँ भागीदार बनना मेरी तो समझ से परे है ।

मैं यहाँ टीवी संस्कृति को दोष नहीं देना चाहती क्योंकि हम आमतौर पर अपनी गलतियाँ भी औरों पर मढ़ देने की आदत के शिकार हैं। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले लोग अपने विवेक से काम क्यों नहीं लेते ? और अगर नहीं लेते तो शायद उसकी भी अपनी वजह है । कभी कभी सोचती हूँ कि इन कार्यक्रमों से जीतने की धनराशी का प्रावधान हटा दिया जाय तो कितने लोग आकर सच कहना चाहेंगें ? मुझे तो यह सच स्वीकारने से ज्यादा जीवन के भेद बेचने का खेल लगता है ।
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डॉ॰ मोनिका शर्मा

11 comments:

  1. सही कहा आपने!..निजी बातों को पब्लिक के सामने क्यों लाया जाए?...टी.वी.चेनल वाले इसे भी कमाई का जरिया बना रहे है!...बढ़िया विषय!

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  2. हाँ रश्मि जी कल मैंने भी इत्तेफाक से ये प्रोग्राम देखा और देख कर लगा कि ये किस तरह का प्रोग्राम है कि जीवन के कुछ पक्षों को प्याज के छिलके की तरह खोल कर दिखना क्या चाहते हें जैसे पूरा खुलने के बाद प्याज का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है वैसे ही जीवन में अगर सिर्फ सच और सच को इसी तरह से उधेडा जाय तो एक ऐसा समाज सामने आएगा जिसमें रह कर हम कितने लोगों के चेहरे से एक पर्दा हटा हुआ देखेंगे और फिर एक दूसरे के मन में उसके प्रति वितृष्णा के सिवा कुछ भी न होगी.
    ये पैसे के लिए अपने ही जीवन का मोल किया जाता है और इससे कितने परिवार टूट जायेंगे क्या सन्देश देना चाहते हें ये प्रोग्राम और हम देख कर क्या सबक ले रहे हें. जैसे साहित्य समाज का दर्पण है वैसे ही ये टी वी के प्रोग्राम भी एक सन्देश देते हें. अगर पैसे की जरूरत है तो फिर घर के सभी लोगों को सबके सामने नंगा खड़ा कर दिया और अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए पैसे ले कर चलाते बने. सिर्फ पैसा ही तो हाथ लगेगा फिर जिन संबंधों की हत्या हुई उसका क्या होगा? लेकिन इन्हें देखने वालों में हम ही तो हें फिर किससे गिला किससे शिकवा? शयद नैतिक मूल्यों की भी बोली लगायी जाने लगी हें.

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  3. हाँ रश्मि जी कल मैंने भी इत्तेफाक से ये प्रोग्राम देखा और देख कर लगा कि ये किस तरह का प्रोग्राम है कि जीवन के कुछ पक्षों को प्याज के छिलके की तरह खोल कर दिखना क्या चाहते हें जैसे पूरा खुलने के बाद प्याज का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है वैसे ही जीवन में अगर सिर्फ सच और सच को इसी तरह से उधेडा जाय तो एक ऐसा समाज सामने आएगा जिसमें रह कर हम कितने लोगों के चेहरे से एक पर्दा हटा हुआ देखेंगे और फिर एक दूसरे के मन में उसके प्रति वितृष्णा के सिवा कुछ भी न होगी.
    ये पैसे के लिए अपने ही जीवन का मोल किया जाता है और इससे कितने परिवार टूट जायेंगे क्या सन्देश देना चाहते हें ये प्रोग्राम और हम देख कर क्या सबक ले रहे हें. जैसे साहित्य समाज का दर्पण है वैसे ही ये टी वी के प्रोग्राम भी एक सन्देश देते हें. अगर पैसे की जरूरत है तो फिर घर के सभी लोगों को सबके सामने नंगा खड़ा कर दिया और अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए पैसे ले कर चलाते बने. सिर्फ पैसा ही तो हाथ लगेगा फिर जिन संबंधों की हत्या हुई उसका क्या होगा? लेकिन इन्हें देखने वालों में हम ही तो हें फिर किससे गिला किससे शिकवा? शयद नैतिक मूल्यों की भी बोली लगायी जाने लगी हें.

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  4. हाँ रश्मि जी कल मैंने भी इत्तेफाक से ये प्रोग्राम देखा और देख कर लगा कि ये किस तरह का प्रोग्राम है कि जीवन के कुछ पक्षों को प्याज के छिलके की तरह खोल कर दिखना क्या चाहते हें जैसे पूरा खुलने के बाद प्याज का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है वैसे ही जीवन में अगर सिर्फ सच और सच को इसी तरह से उधेडा जाय तो एक ऐसा समाज सामने आएगा जिसमें रह कर हम कितने लोगों के चेहरे से एक पर्दा हटा हुआ देखेंगे और फिर एक दूसरे के मन में उसके प्रति वितृष्णा के सिवा कुछ भी न होगी.
    ये पैसे के लिए अपने ही जीवन का मोल किया जाता है और इससे कितने परिवार टूट जायेंगे क्या सन्देश देना चाहते हें ये प्रोग्राम और हम देख कर क्या सबक ले रहे हें. जैसे साहित्य समाज का दर्पण है वैसे ही ये टी वी के प्रोग्राम भी एक सन्देश देते हें. अगर पैसे की जरूरत है तो फिर घर के सभी लोगों को सबके सामने नंगा खड़ा कर दिया और अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए पैसे ले कर चलाते बने. सिर्फ पैसा ही तो हाथ लगेगा फिर जिन संबंधों की हत्या हुई उसका क्या होगा? लेकिन इन्हें देखने वालों में हम ही तो हें फिर किससे गिला किससे शिकवा? शयद नैतिक मूल्यों की भी बोली लगायी जाने लगी हें.

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  5. गम्भीर समस्या पर जागृत चिंतन!!

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  6. एक विचारणीय आलेख सच को दर्शाता हुआ।

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  7. यह सच स्वीकारने से ज्यादा जीवन के भेद बेचने का खेल लगता है ।
    Agree.

    http://sufidarwesh.blogspot.com/

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  8. सच बोलना नहीं यह सच का सौदा है .सच की ह्त्या है .सच जीवन के उत्थान का आदर्श है .आत्मा का संबल ,विक्रय की वस्तु नहीं .सच शर्म ह्या है बेशर्मी नहीं .कपडे उतारके किसी को दिखाना और सच बोलने में फर्क होता है .सच क्या कोई जिंस है ?सच अब कडवा नहीं होता क्या ?

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  9. हम सबके लिए विचारणीय इस विषय को और पूर्णता देती हैं आपकी पंक्तियाँ ..... हार्दिक आभार आपका

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  10. आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ...

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  11. आपकी बात से सहमत हूं ... विचारणीय प्रस्‍तुति

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