क्रोध एक अनियंत्रित मनोदशा
जो सिर्फ विनाश करता है ...

रश्मि प्रभा

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क्रोध

पांचों विकारों में से क्रोध ही एक ऐसा विकार है-

जिसका दुष्प्रभाव क्रोध करने वाले और जिस पर क्रोध किया जा रहा है उभय पक्षों पर पड़ता है इसके अलावा क्रोध सार्वजनिक रूप से दिखाई भी देता है। अर्थात उस क्रोध की प्रक्रिया को उन दोनों के अलावा अन्य लोगो द्वारा भी देखा जाता है। साथ ही छूत की बिमारी की तरह फैलने की सम्भावनाएँ भी रहती है।


क्रोध आने से लेकर इसकी समाप्ति तक इसको चार भागों में बांटा जा सकता है-
1 -क्रोध उत्पन्न होने का कारण ।
मामूली सा अहं, ईष्या, या भय। (कभी-कभी तो बहुत ही छोटा कारण होता है)

2 -क्रोध आने पर उसका रूप।
अहित करना। (स्वयं का, किसी दूसरे का और कभी निर्जीव चीजो को तोड़-फोड़ कर नुक्सान करता है)

3 -क्रोध के बाद उसके परिणाम
पश्चाताप। ( क्रोध हमेशा पछतावे पर ख़त्म होता है)

4 -क्रोध के परिणाम के बाद उसका निवारण
क्षमा। (जो कि हमेशा समझदार लोगो द्वारा किया जाता है)

बात-बेबात क्रोध करने वालों से लिग दूरी बना देते है। क्रोध करने वाले कभी दूसरों के साथ न्याय नहीं कर सकते। क्रोध वह आग है जो अपने निर्माता को पहले जला देती है।

विचार करें, क्या चाहते है आप? अपना व दूसरों का अहित या आनन्द अवस्था?

जब आपका अहं स्वयं को स्वाभिमानी कहकर करवट बदलने लगे, सावधान होकर मौन मंथन स्वीकार कर लेना श्रेयस्कर हो सकता है। साधारणतया मौन को भयजनित प्रतिक्रिया कहकर कमजोरी समझा जाता है पर सच्चाई यह है कि उस समय मौन धारण कर पाना वीरों के लिए भी आसान नहीं होता। वस्तुतः मौन के लिए विवेक को सुदृढ़ करना होता है और इसके लिए उच्चतम साहस चाहिए। क्रोध उदय के संकेत मिलते ही व्यक्ति जब मौन द्वारा अनावश्यक अहंकार पर विवेक पूर्वक सोच लेता है तो बुरे विचार, कटु वाणी और बुरे भावों के सही पहलू जानने, समझने, विचारने और हल करने का अवसर भी मिल जाता है।जो निश्चित ही क्रोध, ईर्ष्या और भय को दूर करने में सहायक सिद्ध होता है। क्रोध के उस क्षण में स्वानुशासित विवेक और आत्मावलोकन के लिए मौन हो जाना क्रोध मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय है।

मेरा फोटो
मुंबई, महाराष्ट्र, India
-हंसराज “सुज्ञ”, मुंबई में आयात-निर्यात व्यवसायरत। साहित्य, इतिहास और आध्यात्म में रूचि, नैतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सद्भाव। स्वयं में मैत्री भाव का चिरआकांक्षी, सम्यक् दृष्टि बननें के लिए संघर्षरत। चाह यही कि, निर्भय, दृढ़, आत्मविश्वास से भरा रहुं, पर पापभीरूता, ॠजुप्रकृति, दुष्कृतग्लानी भी स्वभाव में बनी रहे। इसी उद्देश्य से लेखन का विनम्र प्रयास और ब्लॉगिंग जैसे सहज मंच का संयोग।

17 comments:

  1. बहुत सही लिखा है.. लेकिन क्रोध के समय हम अपना विवेक खो बैठते हैं और सबसे पहले अपना अहित करते हैं। इस पर काबू पाने के लिए बहुत धैर्य चाहिए..

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  2. -क्रोध के परिणाम के बाद उसका निवारण
    क्षमा। (जो कि हमेशा समझदार लोगो द्वारा किया जाता है)

    यह संख्या कम ही होती है,

    बहुत उपयोगी प्रस्तुति...

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  3. प्रभावित करते विचार..

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  4. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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  5. क्रोध वह आग है जो अपने निर्माता को पहले जला देती है।

    jai baba banaras...

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  6. क्रोध से किसी का भला नहीं हुआ है.. सार्थक लेख!
    (पर जब माँ-बाप का बच्चों पर किसी सही बात के लिए क्रोध आता है तो बच्चों का भला ज़रूर होता है! - एक और पहलू है सोचने का :) )

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  7. सुन्दर विचारणीय प्रस्तुति...
    सादर आभार.

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  8. aapke blog par aana sdaev hi sarthak hota hae nit navinta se surbhit .krodh ki prakashtha ki abhivyakti vicharniya hae .saadar

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  9. अरवीला रविकर धरे, चर्चक रूप अनूप |
    प्यार और दुत्कार से, निखरे नया स्वरूप ||

    आपकी टिप्पणियों का स्वागत है ||

    बुधवारीय चर्चा-मंच

    charchamanch.blogspot.com

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  10. रश्मि जी,
    आभार इस प्रस्तुति के लिए

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  11. क्रोध में विवेक मर जाता हैं ॥ सुंदर पोस्ट

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  12. बहुत सुंदर विवेचन...प्रभावी प्रस्तुति..आभार

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  13. क्रोध के उस क्षण में स्वानुशासित विवेक और आत्मावलोकन के लिए मौन हो जाना क्रोध मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय है। bahut achcha vivechan......

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  14. पहले भी पढ़ चुकी हूँ ... फिर से पढ़ कर अच्छा लग रहा है .. :)

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  15. क्रोध से जहाँ तक हो सके बचना ही चाहिए!

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  16. अब कभी गुस्सा नहीं करूँगा कसम से...

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