मेरे भीतर
उगा है पेड़
पर नहीँ बैठी है
अभी कोई भी चिड़िया
नहीँ मुस्कुराया है
अभी कोई भी फूल
और भंवरे की तान
सुनने के लिए
मन कितना-कितना तरसा है

मेरे भीतर
जो पेड़ उगा है
उसकी जड़ेँ
मेरी अपनी जमीन को
कब की छोड़ चुकी है
इसलिए एक ठूंठ को ढोता
मेरा कंधा थक चुका है
थक चुकी है
मेरे आसरे की सारी किरणेँ
दीप कब का बुझ चुका है
और चुक गयी है
उम्र की वो सारी लकीरेँ
मेरे समय की किताबेँ
संस्कृति की आँच भी

वे जड़ेँ
डोलती है परछांई बनकर
पश्चिम की हवाओँ मेँ
पता पुछती है
उन कल्बोँ की
जहाँ खेला जाता है
पत्नी बदलने का खेल
स्वाद संस्कृति का जुआ
सुलगाया जाता है हशिश
और गाया जाता है
फूहड़ गीत

स्वाद की तलाश मेँ वे
बंद कमरे के
विछावन पर लेट जाते हैँ
और भूल जाते हैँ
अपनी जड़ोँ को

अच्छा है
मेरे भीतर का पेड़
तुम्हारे भीतर नहीँ उतरा
नहीँ तो बेस्वाद जिँदगी
तुम्हारी जिँदगी को बदरंग कर देता ।

* मोतीलाल/राउरकेला

12 comments:

  1. सुंदर और सोचने को विवश करती कविता.. टाइपिंग की त्रुटि: क्लब का कल्ब और हशीश का हशिश हो गया है..

    ReplyDelete
  2. बहुत गहरे भाव लिए है कविता..

    अति सुन्दर!!!

    सादर.

    ReplyDelete
  3. बेहद गहर भाव सोचने को मजबूर करते हैं।

    ReplyDelete
  4. इनकी जिंदगी तो बदरंग अब ही अधिक है। और अधिक की चाह में किसी भी तरह का स्वाद इनके जिह्वा को नहीं भा रहा, और जब ऐ अफसोस करते हैं तो बचा ही कुछ नहीं रहता.
    कितनी सुन्दर और कटू कविता लिखी है जैसे कि कलम न होकर तलवार हो...

    ReplyDelete
  5. स्वाद की तलाश मेँ वे
    बंद कमरे के
    विछावन पर लेट जाते हैँ
    और भूल जाते हैँ
    अपनी जड़ोँ को ...मन को छू गई अद्भुत रचना

    ReplyDelete
  6. स्वाद की तलाश मेँ वे
    बंद कमरे के
    विछावन पर लेट जाते हैँ
    और भूल जाते हैँ
    अपनी जड़ोँ को ...

    कुछ लोग किस ओर भाग रहे हैं ....????

    ReplyDelete
  7. मेरे भीतर
    उगा है पेड़
    पर नहीँ बैठी है
    अभी कोई भी चिड़िया
    नहीँ मुस्कुराया है
    अभी कोई भी फूल
    और भंवरे की तान
    सुनने के लिए
    मन कितना-कितना तरसा है
    Behad gahan aur sunder....

    ReplyDelete
  8. बहुत बढि़या प्रस्‍तुति ।

    ReplyDelete

 
Top