एक नाम में तुम खुश न हुए
खोजते हो उपनाम
किसी काम को करने में
क्या है इसका काम ?



रश्मि प्रभा




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फ़ुरसत में ... मिली नसीहत, .. मुफ़्त में ?

किसी बड़े महान व्यक्ति ने कहा था, “नाम में क्या रखा है”। (किसने कहा, वह तो ठीक से याद नहीं, लेकिन यदि विद्वान और बुद्धिजीवी कहलाना है – तो कोई नाम तो लेना ही पड़ेगा) । शायद शेक्सपिअर ने कहा है। (लेने को तो मैं, बापू, बुद्ध या शास्त्री का नाम भी ले सकता था। पर यह कुछ इंडियन टाइप उक्ति हो जाती। फॉरेन टाइप उक्ति में वेट अधिक होता है, एक मार्केट वैल्यू भी होती है उसकी। ... और कौन वेरिफ़ाई करने जा रहा है कि शेक्सपियर ने कहा था या नहीं।) वैसे भी तुलसी, रहीम, प्रसाद,दिनकर को कोट करना ‘आउट ऑफ फैशन-सा’ हो गया है।

ख़ैर बात नाम की हो रही थी। जिस किसी भी विद्वान ने कहा हो, उनके समय में और आज के समय में बदलाव तो आ ही चुका है। एक नाम होता है और एक उपनाम। तब जो टी.एस. इलियट लिखते थे, तो नाम से अगर दुनिया जाने, न जाने, इलियट से जगत प्रसिद्ध तो हो ही गए, ना! विलियम को जाने न जाने शेक्सपियर को दुनिया जान गई, न! इसलिए कह दिया – नाम में क्या रखा है?

पर, आज इक्कीसवीं सदी के इंडिया में उपनाम ने काफ़ी झमेला खड़ा कर रखा है। यहाँ सारी पहचान, लगता है, उसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। एक सप्ताह पहले अपने गृह प्रान्त गया था। एक ज़मीन ख़रीदने की बात चल रही थी। कचहरी के बाबू ने मुझसे पूछ दिया, “आपका नाम?”

मैंने कहा, “मनोज कुमार।”

उन्हें संतोष नहीं हुआ, पूछा - “आगे ..”

मैंने कहा, “कुछ नहीं।”

वे फिर बोले, “कुछ तो होगा न ..?”

मैंने फिर कहा, “यही, और इतना ही है।”

वे बोले, “पर, नाम तो आपको पूरा बताना चाहिए।”

मैंने कहा, “पूरा ही बताया है।”

वे खीज गए, “अरे भाई! शर्मा, वर्मा, राय, प्रसाद, ... कुछ तो होगा ... सरनेम।”

मैंने समझाया, “भाई साहब! मेरा नाम तो मनोज कुमार ही है --- और वैसे भी – उपनाम में क्या रखा है?”

उन सज्जन ने ऐसी घूरती नज़र मुझपर डाली – जैसे वे रुद्र हों और अभी मेरी दुनिया भस्म कर देंगे।

तब मुझे लगा कि शायद इनके लिए उपनाम में बहुत कुछ रखा है।

इंसानी फ़ितरत ही यही है, – वह नाम कमाए न कमाए, उपनाम गँवाने से बहुत डरता है। यह हमारी कमज़ोरी है। इंसान आज इतना कमज़ोर हो गया है कि छोटी-छोटी चीज़ों से डर जाता है और बहादुर भी इतना है कि भगवान से नहीं डरता।

हाँ, -- मेरे अपने तर्क हैं। पर, आप मानने न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। मर्ज़ी आपकी। पर, उससे पहले एक बार मेरी बातों पर ग़ौर फ़रमा के देखिएगा। आपने कभी किसी साहित्य, ग्रंथ आदि में किसी भगवान का उपनाम देखा है – राम प्रसाद, शंकर सिंह, विष्णु झा, सीता वर्मा, लक्ष्मी पांडे, -- हनुमान राम, --- नहीं न। और, वही इंसान, उसी भगवान की बनाई दुनियाँ को उपनाम लगाकर जाति आदि में बाँटने से नहीं डरता। तभी तो मैंने कहा था, छोटी-छोटी बातों से डरने वाला इंसान भगवान से भी नहीं डरता। तभी तो उन सज्जन ने अपने आग्नेय नेत्रों से मुझे इसलिए भस्म कर देना चाहा, क्योंकि उनके बनाए खाँचों के किस फ़्रेम में मैं फिट बैठूंगा – वे निर्धारित नहीं कर पा रहे थे।

ऐसे लोगों को पता नहीं किस शिक्षक ने शिक्षा दी। मुझे अपनी लाल आंखों से घूरकर नसीहत दे रहे थे कि तू अपने नाम के अंत में उपनाम लगा ले – वरना तेरा काम तो अटका ही अटका। अगर आपके नाम के अनुरूप दफ़्तर का माहौल है – तो आपका काम झट से हुआ समझिए। अगर माहौल विरोधी उपनाम वाला है – तो मामला रिजेक्टेड! पर, मेरे जैसे थर्ड ग्रेड की कैटेगरी वाले की हालत तो बद से बदतर हो जाती है। जिनके उपनाम ही न हों, उनकी तो फाइल न आगे बढ़ती है और न ही बंद होती है। उसकी उठा-पटक होती रहती है – कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में।

तीन दिनों की कोर्ट-कचहरी की भाग-दौड़ से कुछ हासिल हुआ हो या नहीं, इतनी तो सीख मुफ्त में लेकर ही लौटा – कि उपनाम में बहुत कुछ रखा है।

पुनश्च : हम इक्कीसवीं सदी में पहुंच गए हैं। दुनिया कहां की कहां पहुंच गई है! हमलोग जहां थे, वहीं स्थिर हैं। लगता है, हमलोग एक्सरसाईज़ करने वाली साइकिल पर सवार होकर पैडल मार रहे हैं, चक्का भी तेज़ी से घूम रहा है, लेकिन साइकिल जस-की-तस खड़ी है।






मनोज कुमार

7 comments:

  1. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तु‍ति ।

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  2. haan..... kai bar aise sawalon se pala padta hai aur jhallahat bhi hoti hai.

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  3. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-743:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  4. बेहतरीन........आपको नववर्ष की शुभकामनायें

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  5. बहुत खूब लिखा है |
    नव वर्ष शुभ और मंगलमय हो |
    आशा

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