अन्दर कितना कुछ टूटता है , टूटता जाता है
उससे मन हटा के
हम खुद को वहम देते हैं - सब ठीक है
पर कई रातें अनमनी गुजर जाती है ...

रश्मि प्रभा
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मन की किरचें

क्या कभी मन की किरचों से दो-चार हुए हैं आप .. ?
मैं हुई हूँ .... और हर रोज़ होती हूँ
नन्ही - नन्हीं किरचें ... जिन्हें हम
अस्तित्वहीन समझ झुठला देते हैं
वो कब अंदर ही अंदर हमें लहू - लुहान कर देती हैं
हम जान भी नहीं पाते
पर जब भावनाओं का ज्वार - भाटा
पूरे वेग से हमें अपने नमकीन पानी में
बहा ले जाता हैं .... तब उन अस्तित्वहीन
किरचों का अहसास होता है हमें

क्यूँ नहीं उन्हें हम पहले ही बीन लेते .. ?
आखिर क्यूँ उन्हें हम अपने मन में जगह दे देते हैं .. ?
क्यूँ भूल जाते हैं कि पाहुना दो दिन को आये
तब ही तक भला लगता है
पर जब पावँ पसार डेरा जमा ले
तब घर क्या .. !! द्वार क्या .. !!
सब समेट कर ले जाता है - अपने साथ
और हम रीते हाथों द्वार थामे .
..... खड़े के खड़े रह जाते हैं !!




गुंजन अग्रवाल

19 comments:

  1. और हम रीते हाथों द्वार थामे .
    ..... खड़े के खड़े रह जाते हैं !!

    बिल्‍कुल सही ... बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  2. bahut hi sundar gunjan ji....ye mn ki kirche sach me reeta kar deti hai...

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  3. अन्दर ही अन्दर लहूलुहान करती किरचें कविता की हृदयस्थली में आकर विश्राम पाती हैं!

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  4. बहुत अच्छी भावपूर्ण सुंदर रचना,..

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  5. वाह! बहुत खूब! और कुछ कहूँ तो ये के:-

    ख्याब शीशे के हैं किर्चों के सिवा क्या देंगे,
    टूट जायेंगे तो जख्मों के सिवा क्या देंगें!

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  6. लाज़वाब !!!
    क्यूँ भूल जाते हैं कि पाहुना दो दिन को आये
    तब ही तक भला लगता है

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  7. Thanku Dii .. thankss to all my dear frndss :))

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  8. सार्थक विचार मूलक प्रेरक प्रस्तुति .सहमत आपकी प्रस्तावना से .

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  9. अच्छी भावपूर्ण सुंदर रचना,..अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  10. भावपूर्ण सुंदर रचना,..

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  11. बहुत सुन्दर तरीके से पिरोया है सब्दों के मोतियों को आभार

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  12. sahi kaha hai aapne kash hum aesa karte bahut sunder abhivyakti
    rachana

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  13. आपके पोस्ट पर आना सार्थक हुआ । बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट "उपेंद्र नाथ अश्क" पर आपकी सादर उपस्थिति प्रार्थनीय है । धन्वाद ।

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  14. बहुत भाव पूर्ण प्रस्तुति |
    आशा

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