मैंने-
पहले भी तो बांटी थी
तुम्हारे अकेलेपन की शाम
जेठ की तपती धुप
और गर्म सांसें
तुम्हारे सुख के लिए ..

मगर-
तुम्हारी नर्म उंगलियाँ
नहीं खोल पायी थी
मेरे मन की कोई गाँठ
एक बार भी .

एक बार भी-
सर्पीली सडकों पर सफ़र करते हुए
तुम्हारे पाँव नहीं डगमगाए थे
और मैं-
पहाड़ों की तरह
पिघलता रहा सारा दिन/सारी रात
तुम्हारे साथ-साथ ...!

रवीन्द्र प्रभात 
www.parikalpnaa.com

15 comments:

  1. बहुत सुन्दर अहसास .. सुन्दर कविता

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  2. मैं-
    पहाड़ों की तरह
    पिघलता रहा सारा दिन/सारी रात
    तुम्हारे साथ-साथ ...!

    sundar ahsaas

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  3. बहुत खूबसूरत अहसास्।

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  4. प्रेम में ऐसा ही होता है...

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  5. बहुत बढ़िया,बहुत खूब !

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  6. सुन्दर और सारगर्भित कविता ,अच्छी लगी !

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  7. बहुत बढ़िया,बहुत खूब !

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  8. कविता अच्छी लगी।

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  9. बहुत बढ़िया,बहुत सुन्दर अहसास...

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  10. सर्पीली सड़कों पर सफर करते हुए हुए
    तुम्हारे पाँव नहीं डगमगाये थे
    और मैं
    पहाड़ों की तरह पिघलता रहा सारा दिन /सारी रात
    तुम्हारे साथ-साथ ...
    वाह बहुत खूब लिखा है आपने बहुत ही सुंदर जज़बात समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/11/blog-post_20.html

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  11. सुंदर कविता रवीन्द्र जी की, बहुत बहुत बधाई।

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  12. खूबसूरत अहसास शब्दों में ढले
    सुन्दर कविता...
    सादर...

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