कभी मैं ग़ज़ल
कभी तुम ग़ज़ल
उम्र का यही इक सफ़र
फिर भी ... अजनबी से तुम
अजनबी से हम
आओ कुछ यादें पिरो लें ....



रश्मि प्रभा


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मीर की गज़ल सा.......

गांव की
गली के उस नुक्कड पर
बरगद की छांव तले
माई बेरी की ढ़ेरी लगाती थी
हम सब उसे नानी कहते थे.
सड़क पार कोठरी मे रहती थी
कम पैसे रहने पर भी
बेर न कम करती....
हमेशा मुस्कराती.

पिछली बार जब भारत गया
तब कहानियां हवा में थी..
सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम
माई नही रही.....

अब वहाँ पेड़ की जगह मॉल बनेगा
और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शोचालय कहलाती है.

-मेरा बचपन खत्म हुआ!!!!!!
कुछ बुढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!

मीर की गज़ल सा................

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समीर लाल ’समीर’

18 comments:

  1. aisa laga jaise koi pal wahi ruk gaya ho...
    mai sadak ke is paar... aur Sameer Uncle ye sab khud hi dikha ke suna rahe hon...

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  2. बहुत सुन्दर भाव संजोये हैं।

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  3. भावमय करते शब्‍दों का संगम ...इस अभिव्‍यक्ति में ।

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  4. वक़्त के साथ होने वाले बदलाव कितना कुछ छीन लेते हैं...!

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  5. इश्क-ओ-हुस्न के नमक से शेर बनते तो हैं,
    दर्द के आँसू मगर मीर की गज़ल का नमक हैं!

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  6. कभी मै गज़ल कभी तू गज़ल--- वाह
    और समीत्र जी ने दिल के भावों को ऐसे पिरोया कि आँख नम हो गयी और गाँव याद आ गया। शुभकामनायें

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  7. आनंद आ गया

    आज के आनंद की जय।

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  8. वाकई विकास के दुसरे पहलू मानवीयता के कई महलों को ध्वस्त कर रहे हैं....थैंक्स दी इतनी मानवीय कविता को ढूंढ़ के लाने के लिए....आपको दिवाली की बहुत बहुत शुभकामनाये....

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  9. आओ कुछ यादें पिरो लें ....
    aur uspar ye kavita......anayas hi munh se nikl gaya wah.......

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  10. संवेदनाओं की चादर सी ये कविता स्पर्स कर गयी मन को ...
    बहुत -२ शुक्रिया जी /

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  11. बड़ों का साथ छूटता जाता है , हम बड़े होते जाते हैं !

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  12. बचपन की सुखद यादों के साथ जीना आसन है...बदलते परिदृश्य में हम सालों बाद जब लौट के जाते हैं...तो ये बदलाव एक टीस देता है...पड़ोस के चाचा-चाची...अंकल-आंटी में बदल गये...हम अपनी धरोहर सँभालने में नाकाम रहे...बच्चे अब बेर भी तो नहीं खाते...

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