जो देता है, वह लेता नहीं ... देता जाता है
जो देता है , उसकी अहमियत हम नहीं समझते
उसे इस्तेमाल करते हैं और चल देते हैं ....


रश्मि प्रभा
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लकडहारे से

फेंक दो कुल्हाड़ी,
सुस्ता लो कुछ देर,
मेरे घने पत्तों की छाँव में.

काट रहे हो कब से मुझे,
थक गए होगे तुम,
छाले पड़ गए होंगे हाथों में.

अभी तो मैं खड़ा हूँ अपनी जगह,
पत्ते भी हैं हरे भरे,,
पर कट चुका हूँ इतना
कि मरना तो अब तय है
और तय है पत्तों का सूख जाना.

अभी वक़्त है, सुस्ता लो छाँव में,
फिर काट लेना मुझे पूरी तरह,
भागकर कहीं नहीं जाऊँगा मैं,
जहाँ हूँ, वहीँ रहूँगा,
उस वक़्त भी तो खड़ा था चुपचाप,
जब तुमने मुझे काटना शुरू किया था.


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ओंकार

13 comments:

  1. कविता में वृक्षों की कटान का दर्द है...वाह !!

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  2. bht bht achha likha h,..sach ped hme itna dete hn ar ek hm ensaan hai bhookh khatam hone ka naam hi nhi leti...

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  3. व्रक्षों के दर्द को बहुत हे बढ़िया और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।

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  4. waah... kitna dard likh diya...
    bahut khoob...

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  5. अभी वक़्त है, सुस्ता लो छाँव में,
    फिर काट लेना मुझे पूरी तरह,
    भागकर कहीं नहीं जाऊँगा मैं,
    जहाँ हूँ, वहीँ रहूँगा,
    .....


    वृक्षों की दर्द सहकर भी परोपकार की भावना को उजगार करती अनूठी कविता|

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  6. व्रक्षों के दर्द को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। धन्यवाद....

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  7. बेहतरीन भावाव्यक्ति।

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  8. बहुत सार्थक रचना , आभार

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  9. अभी वक़्त है, सुस्ता लो छाँव में,
    फिर काट लेना मुझे पूरी तरह,
    भागकर कहीं नहीं जाऊँगा मैं,
    जहाँ हूँ, वहीँ रहूँगा,
    उस वक़्त भी तो खड़ा था चुपचाप,
    जब तुमने मुझे काटना शुरू किया था.
    Aprateem!

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  10. आँखे नम कर गयी ये रचना !

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  11. दिल को छूती रचना...

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  12. इस भागती दुनिया में कहाँ कोई एहसान याद रखता है...
    वृक्ष के माध्यम से मानव के लालच और वटवृक्ष जैसे व्यक्तित्व के धैर्य का बयां होता है!

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