जब आस पास सबकुछ ख़त्म होने लगता है
तो बहुत कुछ कहना भी क्षणिक होता है 




रश्मि प्रभा





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मुझमें प्रेम नहीं अब!


1.

हम सब
या फिर हम सब में से ज्यादातर
बड़े हुए
और फिर बूढ़े
और मर गए एक दिन
बेमतलब

और बुद्ध और कबीर के कहे पे
पानी फेर दिया

2.

प्रकृति ने भूलवश रच दी मृत्यु
और जन्म उस भूल के एवज में रचना पड़ा उसे

मृत्यु भी
झूठ लगती है अब

सभी हैं जीने को अभिशप्त !

3.

जब तक मैं शामिल नहीं हूँ
तब तक मुझे आस है
कि कुछ और लोग भी नहीं होंगे
उस बुरे कृत्य में शामिल

भले हीं दिखाई न पड़ें वे

4.

जितनी मोची पाता है
फटे जूते की मरम्मत कर के
या फिर कुम्हार घड़े बना के उठा लेता है सुख

उतना भी नहीं हासिल है मुझे
तुम्हें लिख के
कविता

मुझमें प्रेम नहीं अब!
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ओम आर्य

22 comments:

  1. बेहतरीन ।

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  2. सार्थक और भावप्रवण रचना।

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  3. सुंदर क्षणिकाएं

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  4. मृत्यु भी
    झूठ लगती है अब

    सभी हैं जीने को अभिशप्त !

    बेहतरीन शब्‍द रचना ।

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  5. सारी क्षणिकाएं गहन बात को कहती हुई ...

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  6. द्वितीय और चतुर्थ क्षणिका बहुत अच्छी लगी ... वैसे सारे ही अच्छे हैं ...

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  7. जितनी मोची पाता है
    फटे जूते की मरम्मत कर के
    या फिर कुम्हार घड़े बना के उठा लेता है सुख

    उतना भी नहीं हासिल है मुझे
    तुम्हें लिख के
    कविता

    मुझमें प्रेम नहीं अब!


    बहुत सुन्दर क्षणिकायें।

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  8. जीवन से प्रेम करने वालों के बीच जीने को अभिशप्त भी है कुछ लोग...
    ये त्रासदियाँ भी इसी जीवन का एक हिस्सा है ...
    सभी क्षणिकाएं बेहतरीन है ...

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  9. बहुत गहरा दर्द छिपा है इन क्षणिकाओं में, मार्मिक रचना !

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  10. sunder kshnikayen ...!!
    gahan matlab se bhari ...!!

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  11. sukh ki anubuti naye sandarbhon me achchhi lagi..

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  12. बहुत सुन्दर और मनभावन.सच को कहने का जज्बा सराहनीय है.

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  13. भावप्रधान क्षणिकाएं!!
    शानदार प्रस्तुति

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  14. मृत्यु भी
    झूठ लगती है अब


    क्षणिकाएं बेहतरीन है

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  15. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति

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  16. कोमल एहसास को शब्द देने की कला कोई आपसे सीखे
    बहुत सुन्दर

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