कितनी तिरस्कृत हूँ मैं
और ग्रन्थ को परे रख तुम
कितने सात्विक !....
फर्क इतना रहा
तुम मुझे अलग करते गए
और खुद को जोड़ते गए !


रश्मि प्रभा



 
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तवायफ़ की इक रात ....


मैं फिर .....
अनुवाद हो गई थी
उसी तरह , जिस तरह
तुम उतार कर फेंक गए थे मुझे
अन्दर बहुत कुछ तिड़का था
ग़ुम गए थे सारे हर्फ़ ....


रात मुट्ठी में
राज़ लिए बैठी रही ...
जो तुम मेरी देह की
समीक्षा करते वक़्त
एक-एक कर खोलते रहे थे
हवा दर्द की आवाजें निगलती ...
जर्द, स्याह, सफ़ेद रंग आग चाटते
कई गुनाह मेरी आहों में
चुपचाप दफ़्न होते रहे ......


बस ये .....
बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
खिलखिला कर हँसता रहा
जो तुमने मुझे छूने से पहले
उतार कर रख दिया था
सिरहाने तले ......!!
[Untitled-1+copy.jpg]


हरकीरत 'हीर'
क्या कहूँ अपने बारे में...? ऐसा कुछ बताने लायक है ही नहीं बस - इक-दर्द था सीने में,जिसे लफ्जों में पिरोती रही दिल में दहकते अंगारे लिए,
मैं जिंदगी की सीढि़याँ चढती रही कुछ माजियों की कतरने थीं, कुछ रातों की बेकसी जख्मो के टांके मैं रातों को सीती रही

31 comments:

  1. कितनी तिरस्कृत हूँ मैं
    और ग्रन्थ को परे रख तुम
    कितने सात्विक !....
    फर्क इतना रहा
    तुम मुझे अलग करते गए
    और खुद को जोड़ते गए !
    ......................

    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    इस भावमय प्रस्‍तुति के लिये आपका बहुत-बहुत आभार ।

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  2. मार्मिक ...संवेदनशील ....मन को छू लेने वाली रचना ...!!
    ऐसे भी लोग जीते हैं ये सोच कर
    बहुत उदास कर गयी ........................................!!!!!!!!!!!
    हरकीरत जी आपको बधाई इस अभिव्यक्ति के लिए .

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  3. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    हरकीरत जी,

    आप तक पहली बार पहुंची हूँ वटवृक्ष के सहारे. एक तवायफ की एक रात को शब्दों मेनन ढाल कर बहुत कुछ कह गयी. वे दिन के उजले में धुले कपड़ों से सजे पाक दिखलाई देते हैं और अपना जनेऊ इसीलिए रोज बदल दिया करते हैं.

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  4. कितनी तिरस्कृत हूँ मैं
    और ग्रन्थ को परे रख तुम
    कितने सात्विक !....
    फर्क इतना रहा
    तुम मुझे अलग करते गए
    और खुद को जोड़ते गए !

    ek acchi rachna aur
    aapki ye panktiyaan ...

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  5. हरकीरात जी तो खुद दर्द की तस्वीर हैं।

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  6. कितनी तिरस्कृत हूँ मैं
    और ग्रन्थ को परे रख तुम
    कितने सात्विक !.... wah....kya baat hai.

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  7. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!
    peeda ekdam saakaar aakar khadi ho gayee hai.....

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  8. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!! bahut sunder vyang badi samvedansheelata ke sath.

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  9. रश्मि जी आभारी हूँ आपकी .....

    आपसे भी आग्रह है ......
    अपनी १०, १२ क्षणिकायें ' सरस्वती -सुमन ' पत्रिका के लिए भेजिए .....
    (ये सभी रचनाकार जो क्षणिकायें लिखते हैं अपनी बेहतरीन क्षणिकायें भेज सकते हैं )
    सरस्वती-सुमन त्रैमासिक पत्रिका है जिसके सम्पादक आनंद सुमन जी हैं ....
    इसके एक अंक अतिथि संपादिका मैं हूँ जो क्षणिका विशेषांक होगा ....
    अपनी क्षणिकायें अपने संक्षिप्त परिचय और छाया चित्र के साथ आप निम्न पते पर भेज सकते हैं या मेल कर सकते हैं .....

    Harkirat 'heer'
    18 east lane , sunderpur
    house no.-5 , R.G.Barua Road
    P.O.Dispur
    Guwahati-781005 (Assam)

    ya mail karein ....

    harkiratheer@yahoo.in

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  10. बेहद मार्मिक .
    हरकीरत जी की प्रत्येक नज़्म की तरह दिल को छूती हुई अभिव्यक्ति.

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  11. हीर जी के ब्लाग पर पढ़ चुका हूँ .........

    आपने वटवृक्ष पर लगाकर बहुत अच्छा किया , हीर जी की नज्में जितनी भी बार पढ़ी जाएँ कम है |

    'तवायफ की एक रात' एक चुभन भरे दर्द और समाज के दोगलेपन --दोनों का एहसास कराती है |

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  12. हरकीरत जी की हर रचना जैसे ज़ेहन में छप जाती है ...

    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति

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  13. सात्विकता के आवरण में छुपे सत्य को उद्घाटित करता एक मार्मिक कटाक्ष....हरकीरत जी शुभकामनाएँ...

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  14. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!
    बस निश्ब्द हूंम मार्मिक अभिव्यक्ति है एक लाचार औरत की त्रास्दी।

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  15. रात मुट्ठी में
    राज़ लिए बैठी रही ...
    जो तुम मेरी देह की
    समीक्षा करते वक़्त
    एक-एक कर खोलते रहे थे
    हवा दर्द की आवाजें निगलती ...

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  16. संवेदनशील
    हरकीरत जी आपको बधाई इस अभिव्यक्ति के लिए .

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  17. bhut hi sanvendanseel aur dard bhai rachna hai aur apne bhut hi chune hue shabdo se dard ko kavita me parstut kar diya...

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  18. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    ye shabd shayed kuchh din pahle hi kishi laghu katha me padhe hain.

    sunder prabhaavshali rachna.

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  19. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    यह रचना दोबारा पढाने का मौका मिला और आज भी इसने मन को उतना ही उद्वेलित कर दिया. मानव स्वभाव की विसंगतियों को बहुत गहराई से चित्रित किया है. बहुत मार्मिक प्रस्तुति...

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  20. हरकीरत जी आपको आपके ब्लॉग पर बधाई दे चुका हूँ यहाँ रश्मि जी को बधाई दूँगा क्योंकि एक अच्छी कविता यहाँ भी उन्होंने पढ़वा दिया |आभार

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  21. हरकीरत जी आपको आपके ब्लॉग पर बधाई दे चुका हूँ यहाँ रश्मि जी को बधाई दूँगा क्योंकि एक अच्छी कविता यहाँ भी उन्होंने पढ़वा दिया |आभार

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  22. हरकीरत जी आपको आपके ब्लॉग पर बधाई दे चुका हूँ यहाँ रश्मि जी को बधाई दूँगा क्योंकि एक अच्छी कविता यहाँ भी उन्होंने पढ़वा दिया |आभार

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  23. हरकीरत जी आपको आपके ब्लॉग पर बधाई दे चुका हूँ यहाँ रश्मि जी को बधाई दूँगा क्योंकि एक अच्छी कविता यहाँ भी उन्होंने पढ़वा दिया |आभार

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  24. बिस्तर पर पड़ा जनेऊ ...
    पाप और पुण्य की अपनी अपनी परिभाषा !
    मार्मिक !

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  25. Just Amazing! baton hi baton me itni badi bat keh gaye aap! Kammal he!
    badhai kabukle, Rashmi di ko bhi shukriya kehna chahunga jo door gehraion se moti chun chun kar lati hain hamare liye!

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  26. "बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!"
    हरकीरत 'हीर' जी आपने तो शब्दों का दर्पण समाज के सामने रख दिया. आपकी अन्य रचनाओं की तरह ही इसमें भी बिम्ब बहुत कुछ अनकहा कह गए.मन को झकझोरती प्रस्तुति .

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  27. हरकीरत 'हीर' जी की तवायफ पर ....मेरी भी एक प्रस्तुति


    तवायफ़...................
    .कुछ सवाल उठ रहे है मन में
    किस को बुलाऊं इस सूनेपन में
    सितारे भी तो नज़र
    नहीं आते इस गगन में
    लेकिन इस ख़ामोशी में भी

    कोलाहल सा हो रह है मन में.......

    चुल्हे कम दिल
    अक्सर जलते है यहाँ
    इठला कर चमक रही है बिजली
    जैसे आग लगने वाली हो तन मन में..........
    शराब के नशे में गिरते है
    गिर कर कम ही सभालते है यहाँ
    इस महखाने ने मुझे इतना बुरा बना दिया
    मेरा नाम भी लेने से डरते है यहाँ………
    किसी ने बजारू
    किसी ने बिकाऊ कहा मुझे
    कैसे गुजारू गी अब मै ये जिन्दगी
    हर दिन सजना ,हर दिन सवरना
    मगर किस के लिए
    दिन में न चैन रात भर जगना
    मगर किस के लिए

    खूब बजती है शेहनाई रात भर
    सुबह उठती है अर्थी अरमा मरते है यहाँ………
    अब मै भी जी जी कर
    मरने लगी हूँ
    कृति .....अंजु ..(अनु )...

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  28. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले .!!

    इस भावमय प्रस्‍तुति के लिये आभार !

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  29. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    एक ऐसा बिम्ब जो सब कुछ कह जाता है! संवेदना से भरी बात,क्या खूब कही है! ’हीर’जी को बधाई!

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  30. कितनी दर्द भरी दास्तां!..पढ़ कर आँखे नाम हो उठी!

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