देखन में छोटन लगे
घाव करे गंभीर .... पर सवाल ये है कि इस गंभीरता से हम खुद में क्या बदलाव लायेंगे !



रश्मि प्रभा





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नई परम्परा

विजय के पिता जी का स्वर्गवास हो गया था। उनके खानदान में परपरा थी कि स्वर्गवासी के फ ूलों (अस्थियों ) को गंगा जी में विसर्जित किया जाता था। वह अपने पिता की आत्मिक शांति के लिए हरिद्वार चल पड़ा। जैसे ही उसने हरिद्वार की भूमि पर कदम रखे उसके चारों ओर पण्डों की भीड़ जुट गई। हाँ, जी कौन-सी जाति के हो । कहाँ से आए हो ? किसके यहाँ जाओगे ? जैसे-जैसे प्रश्नों की संख्या बढ़ रही थी उसकी दुगुनी गति से पण्डों का हुजूम उमड़ रहा था। पिता की मौत के भार तले दबे विजय ने धीरे से बोलते हुए कहा, मुझे पण्डित गुमानी राम के यहाँ जाना है। उसके बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे कि गुमानी राम जी उनके खानदानी पण्डित है।

इतने में भीड़ से एक पण्डे की आवाज आई- आइए मेरे साथ आइए, मैं उनका पौत्र हूँ। में ले चलता हूँ आपको गंगा घाट। आया हुआ पण्डा विजय के हाथों से अस्थि कलश लेकर उनके आगे-आगे चल पड़ा और वो उनके पीछे-पीछे। रास्ते में बतियाते हुए पण्डा बोला- एक हजार रूपये दान करना जी अस्थियां विसर्जित करने के लिए ताकि दिवंगत आत्मा को शांति मिल सके। ऐसी बात सुनकर विजय चौंका तो जरूर पर बिना कुछ कहे उसके साथ-साथ चलता रहा। पण्डे ने फिर से कहा, कहो जी दान करोगे ना। विजय ने उदासी पूर्ण भाव से कहा नहीं, मेरे पास इतने पैसे नहीं है। चलो कोई बात नहीं पिता की सद्गति के लिए कुछ तो दान करना

ही पड़ेगा आपको । कुछ कम कर देंगे, पांच सौ रूपये तो होंगे आपके पास। विजय चुपचाप पण्डे की बात सुनता रहा। लगता है पिता पे तुम्हारी श्रद्धा बिल्कुल नहीं है। तुम्हारा कुछ तो कर्त्तव्य बनता है उनके लिए । जो कुछ था तुम्हारे लिए ही तो छोड़ गए बेचारे । अगर उसमें से थोड़ा हमें दान कर दोगे तो क्या जाता है तुहारा? विजय अब भी चुपचाप सुनते जा रहा था।

गंगा घाट बस बीस कदमों की दूरी पे था। पण्डा अपना आपा खो बैठा था ।बड़े निकम्मे पुत्र हो । मरे बाप की कमाई अकेले खाना चाहते हो। पण्डे की बेतुकी बातें सुनते-सुनते विजय का संयम टूट चुका था। उसने पण्डे के हाथों से अपने पिता का अस्थि-कलश छीन लिया था और पण्डे की ओर देखते हुए बोला- पिता जी मेरे थे। आप कौन होते है उसकी कमाई का हिस्सा मांगने वाले । मेरी श्रद्धा से मैं यहाँ आया हूँ और दान भी अपनी श्रद्धा से ही देता। पर अब तुम्हारी बातें सुनकर तो वो भी नहीं करूंगा और न ही आगे आने वाली पीढ़ियों को करने दूँगा। यह कहकर वह गंगा में उतर गया ।

मैया के जयकारे के संग एक नई परपरा बनाते हुए उसने पिता के फूल गंगा माँ की गोद में अर्पित कर दिये थे। वहीं दूसरी ओर किनारे खड़ा पण्डा इस नई परपरा से अपना धन्धा चौपट होते देख रहा था।

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लड़की

नहीं जी इस सांवली लड़की से मेरे बेटे की शादी थोड़ी ही होने दूँगी। चाँद जैसी बहू चाहिए मेरे बेटे को तो चलो जी दुनिया में लड़कियों की कोई कमी नहीं है ,कोई और खूबसूरत लड़की देखेंगे। अपने लड़के लिए रिश्ता देखने आई कामिनी ने रीना को नकारते हुए अपने पति से कहा। पर कामिनी रीना के गुणों को देखो । वह अच्छे अंकों से स्नातक पास है , घर के सारे कार्यों में निपुण है रीना । हाँ जी सुन लिया आप चलते हैं कि नहीं मैं तो ता रही हूँ ऐसी सांवजी ले जाकर मेरी तो मोहल्ले में नाक कट जाएगी। आखिर महता जी को कामिनी की जिद्द के आगे झुकना पड़े और वो वहां से लौट आए।

कुछ दिनों बाद कामिनी ने अपनी पंसद की लड़की से अपने बेटे की शादी करवा दी। उनकी छोटी बेटी दिव्या भी अब शादी के लायक हो गई थी। आज दिव्या को लड़के वाले देखने आ रहे हैं। घर में तैयारियां चल रही है मगर बेटे और चाँद-सी बहू का अभी तक पता नहीं कि वो आऐंगे या नहीं। खैर लड़के वाले जरूर पहुँचे । उन्होंने दिव्या को देखा मगर शादी के लिए राजी नहीं हुए। वैसे तो दिव्या के चरित्र में कोई दोष नहीं, अच्छी पढ़ी-लिखी भी है। पर एक ही कारण लड़के वालों ने बताया कि उसका रंग थोड़ा सांवला है इसलिए वो दिव्या का रिश्ता नहीं ले रहे। लड़के वालों का जवाब सुनकर कामिनी का व्यक्त्वि उससे जवाब मांगने लगा था पर शायद उसके पास निरूत्तर रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।

फैसला

बेटे! जरा, देखो तो सही तुम्हारा परिणाम कैसा रहा। मैंने सुना है कि आज के अखबार में एचसीएस का परिणाम आया है। महेन्द्र के पिताजी ने उससे उत्सुकता पूर्वक पूछा।

हाँ, पिताजी आज परिणाम आया है, मेरा चयन नहीं हुआ । शायद मेरी किस्मत ही खराब है तभी तो हर साल साक्षात्कार में असफल हो जाता हूँ। महेन्द्र ने मायूस होते हुए जवाब दिया।

बेटे हर इन्सान को अपने कर्मों का फल अवश्य मिलता है, इसमें मायूस होने की जरूरत नहीं है। अगले साल तुहारा चयन जरूर हो जायेगा, मुझे पूरा भरोसा है। महेन्द्र के पिता ने उसका ढ़ांढ़स बंधाते हुए कहा।

नहीं, पिताजी अब मेरा इन बातों से विश्वास उठ गया है। पड़ोस के गाँव के रोशनलाल को देखो। उसका तो पहली बार में ही चयन हो गया। उसके अंक भी मेरे से कम थे। आस-पास के लोगों से सुना तो पता चला कि उसके पिता की बड़े-बड़े राजनेताओं से जान-पहचान है। इसी का फ फायदा उठाते हुए उन्होंने पचास लाख रूपये देकर रोशन का चयन पहले से ही पक्का करवा लिया । अब तुम्हीं बताओ पिताजी क्या फायदा है रात-रात भर जागकर पढ़ाई करने का।

मैंने तो अब फैसला कर लिया है कि कोई ठीक-सी पार्टी राजनितिक देखकर उसमें शामिल हो जाऊं । यह कहते हुए महेन्द्र ने अपनी किताबें एक ओर फैंक दी।
[Untitled-1+copy.jpg]
-डा0 सत्यवान वर्मा ‘सौरभ’,

कविता निकेतन,बड़वा 
(भिवानी) हरियाणा

13 comments:

  1. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति .....।

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  2. teenon laghu-kathayen seekh denewali hain.kuch logon ki aankhe bhi agar khul jaye to kafi hoga.

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  3. तीनो लघु कथायें आज के हालात पर गहरा कटाक्ष करती हैं और सोचने को मजबूर करती हैं………………बेहतरीन ।

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  4. तीनों लघु कथायें बहुत अच्छी लगी सौरभ जी को बहुत बहुत बधाई।

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  5. badhai ho ek se badh kar ek kahani...
    sunder likha hai...
    jai baba banaras...

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  6. धर्म यदि पाखण्ड में बदलेगा तो नयी परम्पराएँ अपना रूप ऐसे ही बदलेंगी ..
    तीनों कहानियां आईना है इस समाज की !
    अच्छी प्रस्तुति!

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  7. पहली लघुकथा ही अपने चरम पर पहुंचती लगी। बाकी दो कमजोर हैं। लघुकथा में अंत में क्‍या होगा यह पहली दो'तीन पंक्तियों में ही पता चल जाता है।

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  8. तीनो लघुकथाएँ बेहतरीन है ... कहीं बदलते समाज में बदलते परम्पराओं की ओर इशारा की गई है तो कहीं दकियानुसी मानसिकता पे कटाक्ष ...

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  9. लधु कथाएँ अच्छी लगीं |बधाई|
    आशा

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  10. बहुत सुन्दर कथाएँ| धन्यवाद|

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  11. samaj ki dooshit parampara par prahar karti kathaye....

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