यूँ हीं तुमने हमें गुनहगार बना दिया
और हमारे छोटे छोटे ख़्वाबों को सूली पे चढ़ा दिया





रश्मि प्रभा






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क्यों समझते हो
गुनहगार
हमें उस गुनाह का,
जिसमें धकेला था
तुमने ही.


हमारा तो
एक साधारण सपना था
छोटा सा घर,
छोटा सा परिवार
और दो वक्त की रोटी.
लेकिन कहाँ सच होते हैं
छोटे लोगों के
छोटे सपने,
जब सामने हों
बूढ़े बीमार पिता
और भूके भाई बहन अपने.


मैंने तो चाही थी
सिर्फ़ मेहनत की दो रोटी,
लेकिन तुमको नज़र आयी
सिर्फ़ मेरी बोटी.
तुम्हारे बनाए दलदल में
मैं फंसती गयी,
बूढ़े बाप को दवा
भाई बहन को रोटी मिल गयी,
पर मेरी आत्मा उसी दिन मर गयी.


तुम्ही ने तो बताये थे
गुर व्यापार के
कि बिना पूंजी के
व्यापार नहीं होता,
और लगवा दी व्यापार में पूंज़ी
न केवल मेरे शरीर की
बल्कि आत्मा
और सम्पूर्ण अस्तित्व की.


निरीहों का शोषण कर,
छीन कर निवाला
उनके मुख से,
कालाबाजारी और रिश्वत
के व्यापारी
जीते हैं इज्ज़त से.
लेकिन मैं
फंसने पर भी तुम्हारे बनाए दलदल में
नहीं देती धोका किसी को
छीनती नहीं हक किसी गरीब का,
करती हूँ व्यापार,
ईमानदारी से,
अपने शरीर का.


अँधेरे कमरे में अप्सरा दिखती तुमको
रोशनी में मगर बदनुमा दाग,
कैसे भूल सकती मैं
लगायी थी तुमने
जो मेरे स्वप्नों में आग.
लेकिन तुम केवल तुम नहीं,
'तुम' में सामिल है
तुम्हारा पूरा समाज.


मुझे हिक़ारत से देखकर
डालना चाहते हो पर्दा
अपने गुनाहों पर,
लेकिन कभी सोचा है
कितना दर्द सहा है
मैंने हर दिन
अपने शरीर, आत्मा और सपनों को
सलीब पर लटके देख कर.

My Photoकैलाश चंद्र शर्मा
ब्लॉग लिंक :http://sharmakailashc.blogspot



11 comments:

  1. लगवा दी व्यापार में पूंज़ी
    न केवल मेरे शरीर की
    बल्कि आत्मा
    और सम्पूर्ण अस्तित्व की.

    बेहतरीन शब्‍द रचना ।

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  2. जिस्म के व्यापर के बारे में कहा जाता है कि यह दुनिया का सबसे पुराना व्यापर है .... कितनी दुखद बात है कि नारी देह का सौदा करना पुरुष तबसे सीख चूका था जबसे पढ़ना लिखना भी नहीं आता था ... कहीं तो मानव समाज में कुछ मूलभूत समस्या है ... बहुत सुन्दर रचना ! आपने एक अनछुई पहलु को छूने का साहस किया है ... कुछ लोगों को यह पढ़ना शायद अच्छा न लगे ... पर हमारे समाज का गन्दा सत्य यही है ...

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  3. लेकिन कभी सोचा है
    कितना दर्द सहा है
    मैंने हर दिन
    अपने शरीर, आत्मा और सपनों को
    सलीब पर लटके देख कर.

    समाज को आईना दिखाती एक कटु सच्चाई को आपने जिस तरह प्रस्तुत किया है काबिल-ए-तारीफ़ है…………शायद ये दर्द कोई नही समझ पाता है चाहे फिर वो कोई भी हो हम सब सिर्फ़ लिख सकते हैं इस पर या बात कर सकते है मगर स्वीकार नही कर पाते इस हकीकत को।

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  4. बहुत ही बेहतरीन लिखा है,

    पूरे मन के भावों को एक कविता में पिरो दिया, कमाल है

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  5. समाज की सच्चाई है ये तो..
    मैंने भी कुछ लिखा था अभी इसी पे..
    ब्लॉग पे "आत्महत्या" पढ़िएगा..

    लोग कहते हैं की नकारात्मक मत लिखो.. पर कभी-कभी मन में वही भाव रहते हैं.. रुकते नहीं हैं..

    फिर कुछ हल्का-फुल्का ही लिखा.. "जियो जी" भी पढ़िएगा..

    आभार

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  6. मन को भीतर तक कचोटते हैं ये सवाल ...
    कौन हैं इनके सपनों के सौदागर ...
    ये तुम कोई सिर्फ एक नहीं ...पूरा समाज

    मार्मिक रचना !

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  7. गहन संवेदनाएं समेटे, जीवन की कटु सच्चाईयों से रूबरू कराती, मर्मस्पर्शी सुंदर रचना. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  8. कैलाश जी की ये रचना पहले भी पढी है...
    आज यहाँ पढ़कर भी अच्छा लगा...
    वाकई ये दूसरा पहलू है...
    आपकी पन्तियाँ तो किसी भी रचना का सर होती हैं बड़ी माँ...

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  9. bahut hi gahari baat liye huye hai rachna...
    bahut sundar...

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  10. यूँ हीं तुमने हमें गुनहगार बना दिया
    और हमारे छोटे छोटे ख़्वाबों को सूली पे चढ़ा दिया
    bahut sunder pangtiyan hain.kavita to hai hi achchi.

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