खो देने का भय जब प्रबल होता हैतो सागर नाले की शक्ल में जीना चाहता है... पर उसकी उद्दात लहरें उसका स्वाभिमान होती हैं जो किनारे से आगे जाकर अपना मुकाम ढूंढती हैं ...उस खोज में अगर वह कुछ देता हैतो कितना कुछ बहा ले जाता हैसंतुलन सागर को नहीं सागर तक जानेवालों को रखना होता है ...

रश्मि प्रभा



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परिक्रमा पूरी हुई

मेरे कमरे में मत आना
धुंआ धुंआ सा जो है
उसका अर्थ तुम नहीं जान सकोगे !
तुम बस इतना सोचते हो
कि जहाँ आग है
वहाँ धुंआ है
आग कहाँ से
क्यूँ
किसके द्वारा ?.
इस पर सोचना
तुम्हारी नियत में नहीं
बस एक शोर मचाना है
'ये धुंआ कहाँ से !'

इसके बाद
तुम अपनी मौज मस्ती में
डूब जाते हो
मेरे कमरे की घुटन से
तुम्हारा कोई सरोकार नहीं
ना ही तुम कभी ये समझ पाते हो
कि तुम्हारे निकृष्ट सोच की धूल भी
उस धुंएँ में शामिल है ...

तुम जानना चाहते हो
तो आओ
मैं ही बताता हूँ इस धुंए का रहस्य ...
यह धुंआ मेरे बचपन से है
आग मेरे अपनों ने लगाईं
जो कहते थे -
हम कामयाबियों में साथ हैं
तो नाकामयाबियाँ भी हम सब की हैं'
मैंने मान लिया ...

कभी मैंने माँ का आँचल पकड़ा
कभी पिता की ऊँगली थामी

...अनगिनत चेहरे ,
भागते भागते मेरे पैर लहुलुहान हो गए
मैंने इस कमरे में खुद को बांधना चाहा
पर जो मेरे क़दमों से दौड़ते थे
उन्हें नागवार लगा
माचिस की तीली सुलगाई
कमरे के सुकून पर फ़ेंक दिया ....

मैंने धुंए से मित्रता कर ली
वह अगर का धुंआ बन
मेरे स्वरुप को तराशने लगा
मेरे भीतर सतयुग
और द्वापर युग की
परिक्रमा होने लगी
मेरी खोज मुझ तक सीमित हो गई ...

यूँ भी इस शोर में मैं क्या तलाशता
शब्दों से शह मात देनेवाले
इसे शब्दों की बाज़ी ही कहते
कहते हो ना तुम सब?
सच से भागकर
बड़ी आजिजी से कहते हो
'ये भारी भरकम बातें
हमें समझ में नहीं आतीं '
कितनी हास्यास्पद बात है
--- बातें समझ में नहीं आतीं
मेरी आँखों का रेगिस्तान नहीं दिखता
पर धुंए का कारण जानने को
शोर मचा रहे हो ....


ठहर जाओ अब अपनी जगह पर
इस धुंएँ में अब कुछ भी जानलेवा नहीं
अपनी जगह से इसे देखना बन्द करो
बन्द भी करो
मेरी जगह पर आना संभव नहीं
क्योंकि मैंने खोकर भी तुम्हें दिया है
और तुमने 'मुझे' कभी याद नहीं किया ...


अब इस कमरे में मैं हूँ
और वह मुक्त भाव
जिसकी तलाश में मनुष्य तपस्या करता है
मेरी तपस्या पूरी हुई
अब इस कमरे में सच है
बाहर जो धुंआ है
वह तुम्हारा डर है
मैं मुक्त हूँ
तुम असहाय
परिक्रमा पूरी हुई

()सुमन सिन्हा
http://zindagikhwaabha.blogspot.com/

10 comments:

  1. संतुलन सागर को नहीं सागर तक जानेवालों को रखना होता है ..

    बहुत ही गहन विचारों से प्रस्‍तुत यह अभिव्‍यक्ति अनुपम खोज साबित हुई है ...

    बाहर जो धुंआ है
    वह तुम्हारा डर है
    मैं मुक्त हूँ
    तुम असहाय
    परिक्रमा पूरी हुई ...बिल्‍कुल सत्‍य कहा है इन शब्‍दों में आपने, सुन्‍दर लेखन के लिये बधाई ।

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  2. सुमन जी की कविता में अनायास गहन भाव उतर आते हैं ... बहुत सुन्दर !

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  3. suman jee...sach kahun to pahle laga aap bhi ham jaise bas shabdo ko jodte ho, dhire dhire pata chala...aap to badi unchi chij ho..:)

    अब इस कमरे में मैं हूँ
    और वह मुक्त भाव
    जिसकी तलाश में मनुष्य तपस्या करता है
    मेरी तपस्या पूरी हुई
    अब इस कमरे में सच है
    बाहर जो धुंआ है
    वह तुम्हारा डर है
    मैं मुक्त हूँ
    तुम असहाय
    परिक्रमा पूरी हुई

    tabhi to vattvrikshha pe aapki kai post padh chuka...:)

    god bless

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  4. बेजोड़ प्रस्तुति /
    शानदार अभिव्यक्ति

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  5. गहन विचारों की उत्तम प्रस्तुति.

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  6. बेहतरीन रचना!!!

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  7. आग कहाँ से
    क्यूँ
    किसके द्वारा ?.
    इस पर सोचना
    तुम्हारी नियत में नहीं
    बस एक शोर मचाना है
    'ये धुंआ कहाँ से !'
    मुझे ये शब्द एक किसी मन की व्यथा प्रतीत होते हैं जिसे शायद कोई समझता नही या समझ कर भी समझना नही चाह्ता \
    मैंने धुंए से मित्रता कर ली
    वह अगर का धुंआ बन
    मेरे स्वरुप को तराशने लगा
    मेरे भीतर सतयुग
    और द्वापर युग की
    परिक्रमा होने लगी
    मेरी खोज मुझ तक सीमित हो गई ...
    इन निराशा हताशा के क्षणो मे ही आदमी खुद के पास लौट कर आता है अपने भीतर झाँकता है।
    तो सहज ही कह उठता है

    अब इस कमरे में मैं हूँ
    और वह मुक्त भाव
    जिसकी तलाश में मनुष्य तपस्या करता है
    मेरी तपस्या पूरी हुई
    अब इस कमरे में सच है
    बाहर जो धुंआ है
    वह तुम्हारा डर है
    मैं मुक्त हूँ
    तुम असहाय
    परिक्रमा पूरी हुई।
    कविता मे मन के अन्तर्दुअन्द के बाद खुद की तलाश पूरी होती है तो जीवन का सच समझ मे आता है । शब्द नही मेरे पास रचना की तारीफ के लिये। मुझे लगा कि ये रचना मेरे मन से निकल रही है। रचना तो वही है जो पाठक को खुद मे आत्मसात कर ले। सुमन सिन्हा जी को बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये। आपका धन्यवाद।

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