माँ , तुमने महिषासुर का संहार किया
नौ रूपों में अपने
नारी की शक्ति को समाहित किया !
अल्प बुध्धि - सी काया दी
वक्त की मांग पर तेज़
जब-जब अत्याचार बढ़ा
तुमने काया कल्प किया !
रक्त में ज्वाला
आँख में अग्नि
मस्तिष्क में त्रिशूल बन धधकी !
कमज़ोर नहीं है नारी
जाने है दुनिया सारी
माँ तेरी कृपा है हर उस घर में
जहाँ जन्म ले नारी !!!



रश्मि प्रभा






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(लघु कथा)


माँ का मर्म

बधाई हो! घर में लक्ष्मी आई है, कहते हुए नन्हीं सी बिटिया को दादी की गोद में देते हुए नर्स बोली। हुँह..... क्या खाक बधाई। पहली ही बहू के पहली संतान वो भी लड़की हुई और वो भी सिजेरियन...... कहते हुए उन्होंने मुँह फेर लिया और उस नन्हीं सी जान को स्नेह की एक बँूद भी बरसाने की जरूरत नहीं समझी प्रीती की सासू माँ ने। जल्द ही अपनी गोद हल्की करते हुए बच्ची को बढ़ा दिया अपने बेटे की गोद में।

रवि को तो जैसे सारा जहां मिल गया अपने अंश को अपने सामने पाकर। पिछले नौ महीने कितनी कल्पनाओं के साथ एक-एक पल रोमांच के साथ बिताया था प्रीती और रवि ने। खुशी के आँसू के साथ दो बूँदंे टपक पड़ी उस नन्ही सी बिटिया पर।
कुछ दिनों के अंतराल पर अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद जब घर जाने की तैयारी हुई तो प्रीती फूले न समा रही थी। पिछले नौ महीनों से जिस घड़ी की इंतजार वह कर रही थी, आज आ ही गई। अपनी गोद भरी हुई पाकर जब प्रीति ने घर में प्रवेश किया तो मारे खुशी के उसके आँसू बहने लगे। वह इस खुशी के पल को संँभालने की कोशिश करने लगी। हँसते-खेलते ग्यारह दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला। लेकिन सासू माँ का मुँह टेढ़ा ही बना रहा। प्रीति चाहती थी कि दादी का प्यार उस नन्हीं सी जान को मिले, लेकिन उसकी ऐसी किस्मत कहाँ ?

खैर, जब बारहवें दिन बरही-रस्म की बात आयी तो सासू माँ को जैसे सब कुछ सुनाने का अवसर मिल गया और इतने दिन का गुबार उन्होंने एक पल में ही निकाल लिया......कैसी बरही, किसकी बरही, बिटिया ही तो जन्मी है। हमारे यहाँ बिटिया के जन्म पर कोई रस्म-रिवाज नहीं होता.... कौन सी खुशी है जो मैं ढोल बजाऊँ, सबको मिठाई खिलाऊँ.... कितनी बार कहा था जाँच करा लो, लेकिन नहीं माने तुम सब। लो अब भुगतो, मुझे नहीं मनाना कोई रस्मोरिवाज......।

सासू माँ की ऐसी बात सुनकर प्रीति का दिल भर आया। रूँधे हुए गले से बोली, सासू माँ! आज अगर यह बेटी मेरी गोद में नहीं होती तो कुछ दिन बाद आप ही मुझे बांझ कहती और हो सकता तो अपने बेटे को दूसरी शादी के लिए भी कहती जो शायद आपको दादी बना सके, लेकिन आज इसी लड़की की वजह से मैं माँ बन सकी हूँ। यह शब्द एक लड़की के जीवन में क्या मायने रखता हैं, यह आप भी अच्छी तरह जानती हैं। आप उस बांझ के या उस औरत के दर्द को नहीं समझ सकंेगी, जिसका बच्चा या बच्ची पैदा होते ही मर जाते हैं। ये तो ईश्वर की दया है सासू माँ, कि मुझे वह दिन नहीं देखना पड़ा। आपको तो खुश होना चाहिए कि आप दादी बन चुकी हैं, फिर चाहे वह एक लड़की की ही। आप तो खुद ही एक नारी हैं और लड़की के जन्म होने पर ऐसे बोल रही हैं। कम से कम आपके मुँह से ऐसे शब्द नहीं शोभा देते सासू माँ। इतना कहते ही इतनी देर से रोके हुए आँसुओं को और नहीं रोक सकी प्रीती।

प्रीती की बातों ने सासू माँ को नयी दृष्टि दी और उन्हें अपनी बातों का मर्म समझ में आ गया था। उन्होंने तुरन्त ही बहू प्रीती की गोद से उस नन्हीं सी बच्ची को गोद में ले लिया और अपनी सम्पूर्ण ममता उस पर न्यौछावर कर उसको आलिंगन में भर लिया।

शायद उन्होंने इस सत्य को स्वीकार लिया कि लड़की भी तो ईश्वर की ही सृष्टि है। जहाँ पर नवरात्र के पर्व पर कुंवारी कन्याओं को खिलाने की लोग तमन्ना पालते हैं, जहाँ दुर्गा, लक्ष्मी, काली इत्यादि देवियों की पूजा होती है, वहाँ हम मनुष्य ये निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि हमें सिर्फ लड़का चाहिए, लड़की नहीं।


आकांक्षा यादव,
द्वारा- श्री कृष्ण कुमार यादव
निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह,
पोर्टब्लेयर-७४४१०१
kk_akanksha@yahoo.com


कॉलेज में प्रवक्ता के साथ-साथ साहित्य की तरफ रुझान.पहली कविता कादम्बिनी में प्रकाशित,तत्पश्चात-इण्डिया टुडे, नवनीत,साहित्य अमृत,आजकल, दैनिक जागरण,जनसत्ता,राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला,स्वतंत्र भारत,आज, राजस्थान पत्रिका,इण्डिया न्यूज,उत्तर प्रदेश,अक्षर पर्व,शुभ तारिका,गोलकोण्डा दर्पण,युगतेवर,हरिगंधा,हिमप्रस्थ, युद्धरत आम आदमी,अरावली उद्घोष,प्रगतिशील आकल्प,राष्ट्रधर्म,नारी अस्मिता,अहल्या, गृहलक्ष्मी,गृहशोभा,मेरी संगिनी,वुमेन ऑन टॉप,बाल भारती,बाल साहित्य समीक्षा,बाल वाटिका,बाल प्रहरी,देव पुत्र,अनुराग,वात्सल्य जगत, इत्यादि सहित शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में कविता, लेख और लघुकथाओं का अनवरत प्रकाशन.अंतर्जाल पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन.शब्द-शिखर,सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग और बाल-दुनिया ब्लॉग का सञ्चालन. दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित.नारी विमर्श, बाल विमर्श और सामाजिक मुद्दों से सम्बंधित विषयों पर प्रमुखता से लेखन. "क्रांति-यज्ञ:1857-1947 की गाथा" में संपादन सहयोग. व्यक्तित्व-कृतित्व पर "बाल साहित्य समीक्षा(कानपुर)" द्वारा विशेषांक जारी. विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित. एक रचनाधर्मी के रूप में रचनाओं को जीवंतता के साथ सामाजिक संस्कार देने का प्रयास. बिना लाग-लपेट के सुलभ भाव-भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें, यही मेरी लेखनी की शक्ति है . सम्प्रति पतिदेव के साथ अंडमान में. संपर्क- आकांक्षा यादव, द्वारा- श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101, kk_akanksha@yahoo.com
संचालित/सम्पादित ब्लॉग-
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10 comments:

  1. इस सत्य को स्वीकार लिया कि लड़की भी तो ईश्वर की ही सृष्टि है ...बहुत ही सार्थक संदेश देती बेहतरीन प्रस्‍तुति ...।

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  2. सुन्दर संदेश …………बस सब इसी तरह स्वीकार कर लें तो भेदभाव मिट जाये।

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  3. गनीमत है की सासू माँ एक झटके में ही समझ गयी ...वर्ना लोगो की तो उम्र बीत जाती है यस समझने में ...
    नवरात्रों में कन्यों का पूजन कर जिमाने वालों का ऐसा व्यवहार बहुत अचंभित करता है मुझे भी ...

    बहुत अच्छी प्रस्तुति!

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  4. कहानी में जितनी जल्दी सास ने समझ लिया हकीकत में उतनी जल्दी समझती नहीं हैं.
    सन्देश अच्छा है.

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  5. kahani bahut sundar hai ... prerak aur shikshatmak ... par shayad mithaas thoda jyada ghola gaya hai ... kyunki haqiqat ki duniya mein aise logon ko samjhana lagbhag asambhav hota hai ...

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  6. यह तो मेरी ममा की रचना है..अभी जाकर बताती हूँ.

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  7. रश्मि जी,
    मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए आभार.

    आप सभी की टिप्पणियों और प्रोत्साहन के लिए आभार !!

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  8. जहाँ पर नवरात्र के पर्व पर कुंवारी कन्याओं को खिलाने की लोग तमन्ना पालते हैं, जहाँ दुर्गा, लक्ष्मी, काली इत्यादि देवियों की पूजा होती है, वहाँ हम मनुष्य ये निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि हमें सिर्फ लड़का चाहिए, लड़की नहीं...Bahut sundar abhivyakti..

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