तुम्हारे पास लकड़ी की नाव नहीं ,
निराशा कैसी?
कागज़ के पन्ने तो हैं !
नाव बनाओ और पूरी दुनिया की सैर करो..........
हर खोज,हर आविष्कार तुम्हारे भीतर है ,
अन्धकार को दूर करने का चिराग भी तुम्हारे भीतर है
तुम डरते हो कागज़ की नाव डूब जायेगी , पर
अपने आत्मविश्वास की पतवार से उसे चलाओ तो
हर लहरें तुम्हारा साथ देंगी.........


रश्मि प्रभा




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दर्द-निवारक

छोटा सौरव जब चलना सीख रहा था तो कभी-कभी गिर पड़ता, माँ झट उसे गोद में लेकर उसके दर्द को गायब कर देती...
बचपन में जब चोट लगती थी तो सौरव भागा-भागा अपने माँ-बाप के पास आता था.. वो झट से उसका
कम नंबर आने पर जब सौरव उदास हो जाता तो उसके पिता उसे अच्छे से बैठ कर समझाते और उसका दुःख-दर्द झट ख़त्म हो जाता...

कॉलेज में जब किसी प्रोग्राम में सौरव हताश हो जाता तो उसके माँ-पिताजी उसका मनोबल बढ़ाते, उसकी हौसला-अफजाई करते और उसके दर्द को कम कर देते थे...

नौकरी शुरू की तो संसार की छोटी-मोटी सभी परेशानियां अपने माँ-पिताजी के समक्ष रखता और वो झट उसके दर्द को समझते और सही सलाह दे कर उसे दूर कर देते...

शादी होने के बाद जिम्मेवारी बढ़ गयी तो सौरव और परेशान रहने लगा... पिताजी कभी-कभी उसे बुलाते और उसे हर जिम्मेवारी को सही से निभाने की सलाह देकर उसका बोझ हल्का कर देते... उसका दर्द कम करते...

फिर एक दिन सौरव ने पत्नी की सुन ली और माँ-पिताजी को वृद्धाश्रम छोड़ आया.. वह खुद को आज़ाद महसूस करने लगा और खुश था...
पर एक दिन किस्मत ने पल्टी मारी... एक हादसे में उसने अपने बीवी-बच्चों को खो दिया..
उसपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा...

वह भागा-भागा वृद्धाश्रम गया और अपने माँ-बाप को ले आया...

माँ-पिताजी ने निःसंकोच उसके दर्द को अपने में समा लिया और उसके दुःख को हल्का और कम कर दिया...

ज़िन्दगी यूँ ही चल रही है और सौरव को आज भी माँ-बाप सिर्फ और सिर्फ दर्द-निवारक ही लगते हैंमोहित एक सर्वगुण और सम्पूर्ण परिवार का लाडला बेटा था बड़ा भाई डॉक्टर बन गया था और बड़ी बहन भी अपनी पढ़ाई पूरी कर के अपने ससुराल जा चुकी थी मोहित पिछले ५ सालों से बाहर ही था और अपनी पढ़ाई ख़त्म करके वो वापस घर आया था मोहित में बदलाव ज़बरदस्त था और उसके सोचने-समझने-परखने की शक्ति लाजवाब हो गयी थी कॉमर्स लेकर पढ़ने के बाद भी उसका रुख अपने देश, अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने का था वह केवल बोलना और सुनना नहीं चाहता था.. कुछ करना भी चाहता था कुछ अनुभवी लोगों से विचार-विमर्श करके उसने एक फैसला लिया..एक दृढ़ घर आया और माँ-पिताजी को कहा, "मैं देश के लिए काम करना चाहता हूँ, मैं राजनीति में जाना चाहता हूँ" ... इतना कहना था कि पिताजी आवेश में आ गए और कहा कि यह शब्द और सोच अपने ज़हन से निकाल दो.. हमने तुम्हे इसलिए नहीं पढ़ाया है कि तुम इस गन्दगी में पैर रखो.. शादी करके घर बसाओ और शान्ति से रहो.. समाज-सेवा करने के लिए और भी लोग हैं..राजनीति में मेरी लाश पर चढ़कर हीहिस्सा लेनामोहित फटा सा देखता और सुनता रहा.. सोचा कि सफाई सबको चाहिए पर भगत सिंह तो पड़ोस से ही हो.. वह अपने निश्चय की दृढ़ता पर सोचता हुआ अपने कमरे में आ गया और इस तरह एक भावी, शिक्षित और युवा राजनेता का क़त्ल हो गया..प्रतीक माहेश्वरी बिट्स पिलानी से विद्युत अभियंता है.. फिलहाल कार्यरत है और इसके अलावा गाना, बजाना और ब्लॉगिंग का शौक है

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प्रतीक माहेश्वरी
Mob.- 78 38 38 04 54
मेरा ब्लॉग

10 comments:

  1. दोनो रचनायें दिल को छू गयी। प्रतीक जी को बधाई। आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामना

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  2. गज़ब की सोच का परिचायक है प्रतीक जी का लेखन्।
    दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।

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  3. do laghu kathao ke madhaym se sachchai ko bahut behtareen dhang se Prateek jee ne samjhaya.........:)

    deewali ki jagmag karti subhkamnayen.......:)

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  4. दोनो रचनायें बहुत ही सुन्‍दर भावमय प्रस्‍तु‍ति के लिये आभार ।

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  5. bhn ji shi kha drdta se hi hr musibt kaa hl ho skta he or khud ko hi musibton ka hl dhundhna hota he mubark ho dusri dipaavli bhi mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthan

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  6. dono laghu kathayen sochne ko majboor karti hai sundar abhivyakti ,badhai

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  7. दोनों बहुत अच्छी रचनाएं हैं

    दीपोत्सव की शुभकामनाएं.

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  8. दोनों लघुकथाएं अच्छी लगी ...
    दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ..!

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  9. आप सभी के टिप्पणियों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद..
    आपके प्रोत्साहन से और भी लिखने की इच्छा है..

    विशेष धन्यवाद रश्मिजी का, जिन्होंने अपने ब्लॉग पर मेरे लेखों को जगह दी..

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