यह दिल तो हमेशा कुछ कहता है कभी जीवन, कभी रिश्ते, कभी ख्वाब...बुनता रहता है लम्हों को
और एक दोस्त ढूंढता है जिससे दिल बयान कर सके,
जो दिल के पार की बातें समझ सके,
क्योंकि,दिल यूँ भी कुछ कहता है कहता जाता है..

रश्मि प्रभा





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दो लघुकथाएँ


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१-- जीत

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-जीजी ,जीजाजी कैसे हैं ?
-ठीक नहीं ।
-कनाडा से कमल को बुलालो । उसे गये बहुत दिन हो गये । कोई तो चाहिए - - - आप अकेले जीजाजी को कैसे सम्हांलोगी ।
-हाँ ,सोच तो रही हूं ।
-पर वह आएगा नहीं । एक बार जो चला जाय वह आता है क्या ! फिर यहाँ इतना पैसा भी तो नहीं मिलता । पैसा ही तो सबकुछ है ।

काशी मौन थी पर उसक विश्वास वाचाल था --वह आएगा ।
सुबह होते ही आदत के मुताबिक कम्प्यूटर पर जा बैठी 'स्काई पी 'पर क्लिक कर दिया आवाज गूंजी-
-हैलो माँ !राम -राम ,कैसी हो ?
-मैं तो ठीक हूं पर तुम्हारे पापा अस्वस्थ हैं । अब तो भारत भी बहुत तरक्की कर रहा है । यदि 1 %भी तुम्हारा स्वदेश लौटने का इरादा हो तो देरी मत करो । पके फलों को टपकने में क्या देर लगे ।
-ओह माँ !चिंता न करो । बेटा छोटा सा उत्तर देकर खामोश हो गया ।

खामोशी तलवार की तरह उसकी गर्दन पर लटक गई। कहीं वह बच्चों से ज्यादा आशा तो नहीं कर रही । वह दिन उसकी स्मृति में डोल गया जब बेटा एयर पोर्ट में घुसने से पहले बोला था --
माँ इतने चाव से मुझे विदेश भेज रही हो। पर एक बार मैं गया तो लौटने की ज्यादा उम्मीद न करना ।
व्याकुलता ने कुछ क्षणों को अपना सिर अवश्य उठाया पर शीघ्र ही उसके विश्वास के आगे झुक गया । रोम -रोम पुकार उठा -वह आएगा----वह आएगा ।

सूर्य की लाली फैलते ही उस दिन मोबाईल बज उठा ।
-माँ मैं आ रहा हूं-- वह भी एक माह को ।
-तू आ रहा है ---एक पल को दिवाली सी रौनक उसके मुख पर छा गई ।

बेटा आया। पन्द्रह दिन कम्प्यूटर से चिपका बैठा रहा । फिर बंगलौर -हैदराबाद की उड़ान भरने चला गया । लौटने पर माँ के आँचल की छांह ढूढ़ने लगा। माँ --माँ --कहाँ हो मुझे बैंगलौर में नौकरी मिल गई है । दो माह बाद आना है ।
-इतनी जल्दी !१५साल की तेरी गृहस्थी ,बसा -बसाया घर!कैसे सब उठा सकेगा !
-जब आना है तो बस आना है ।
माँ का विश्वास मुस्काने लगा ।

--अच्छा माँ ,एक बात बताओ -दिल्ली में मामा -मौसी ,बुआ -सारी रिश्तेदारी है । इनका मोह छोड़ना सरल नहीं । अब आप कहाँ रहोगी -दिल्ली या बैंगलौर !
-बैंगलौर ,तेरे पास ! तू मेरे लिए कनाडा छोड़कर भारत आ सकता है तो क्या मै दिल्ली छोड़कर बैंगलौर नहीं रह सकती ।
आत्मीयता के अनमोल क्षणों में संतोष का सैलाब उमड़ पड़ा ।
विश्वास जीत गया था ।

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२--पीड़ा
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शहरी बाबू को अपने गाँव की मिट्टी पुकारती तो चल देता कंधे पर झोला लटकाए । दो -तीन दिन पुरखों की मढैया में रहता ,बचपन के गली- चौराहों से गुजरता और अजीब सी खुशी समेटे लौट आता ।


इस बार भी वहाँ गया । बाल साथी कसेरू दरवाजे पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था । उसे देख शहरिया खरगोशिया चाल में बोला --अकेले कैसे!बच्चे कहाँ हैं ?
-पढ़ने गए हैं ,आते ही होंगे मंदिर से ।
-क्या बोल रहा है !गए हैं स्कूल ,आयेंगे मंदिर से ।
-अरे भैया मंदिर के अहाते में ही कक्षाएं चलती हैं ।
-फिर स्कूल ---।
-उस पर दो साल से ताला जड़ा है ।
-तब तो बच्चों को बड़ा कष्ट होता होगा ।
-हमें तो मौसमी तूफान ,मिजाजी तूफान ,और पंचायती तूफान सहने की आदत है ।
-यह आदत ही तो ख़राब है विरोध में आवाज तो उठानी ही चाहिए ।
--न बाबा न !ऐसा भूलकर भी न करना । तेरा क्या ----!उधम मचाकर भाग जायेगा शहर ,साथ में भाग जायेंगे ये ४-५ मास्टर भीबड़ी मुश्किल से रोक रखा है। हुक्का -पानी सब घरों से जाता है -फीस अलग ।


बाबू की हिम्मत नहीं हुई फिर इस विषय पर बात करने की । गाँव से वह इस बार भी लौटा पर आँखों में रेत सी उदासी लिए जिससे वह महीनों महायुद्ध करता रहा ।
* * * * *
-सुधा भार्गव
http://sudhashilp.blogspot.com/
http://baalshilp.blogspot.com/

18 comments:

  1. बहुत भावुक कर गई पहली लघुकथा.. ऐसी जीत सबको नसीब कहाँ.. दूसरी लघुकथा में जमीनी हकीकत को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है..

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  2. vry touchy short stories, anyas hi aankhe nam ho aayi, aur dusri story me to ye desh ke halaat hain, pata nhi kitna fund har saal govt sanction karti he , kaha jatga he, pata hi nhi chalta,, kahi imarat nhi he, kahi imarat he to teacher nhi he, kahi teacher he to bachhe nhi he,

    lekin fir bhi hindustaan in sab kamiyon ke babjood, tarakki ki rah par to he, lekin wo kabhi America nhi ban sakta, ye bidambna he....


    aapko padhna bahut achha laga

    Rashmi di ko thnx jo itni achhi achhi rachnao se hame parichit karbati hain, sath hi rachnakaro se

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  3. पहली कथा बहुत ही भावुक पर पता नहीं कितनी सत्यता है आजके युग में.. काश ये काफी हद तक सत्य ही हो...

    दूसरी कथा कि लिए इतना ही कहूँगा कि लड़ना तो हमें होगा ही.. आखिर कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे..

    मेरे ब्लॉग पर भी कुछ लघु कथाएँ हैं.. आ कर आपके विचार देंगी तो अच्छा लगेगा...

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  4. बहुत ही ख़ूबसूरत लघुकथाएँ...
    लेकिन क्या पहली लघुकथा जैसा कुछ होता है ???
    हमको पढवाने के लिए धन्यवाद...

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  5. पहली कहानी भावनात्मक है, बहुत अच्छा संदेश भी है...
    दूसरी कहानी सचमुच शहरों और गांवों के बीच विकास के फ़ासले का दर्पण बन गई है...
    लेखिका को बधाई.

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  6. दोनो ही लघुकथायें दिल को छू गयीं।
    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (22/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  7. दोनों लघुकथाएं मर्मस्पर्शी है , अच्छी लगी !

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  8. संवेदना से परिपूर्ण है आपकी दोनों लघुकथाएं, आभार !

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  9. खूबसूरत और भावमयी प्रस्तुति

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  10. बहुत ही ख़ूबसूरत लघुकथाएँ...लेखिका को बधाई.

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  11. सुधा जी दोनों लघुकथाएं अच्‍छी हैं। पर पहली लघुकथा में पहले पैराग्राफ की आवश्‍यकता नहीं है। वह आप हटा दें तो लघुकथा और कस जाती है।

    बीच में थोड़ी सी भटकती है। क्‍योंकि बीमार तो पिता रहते हैं, पर बंगलौर चलने की बात बेटा केवल मां से पूछता है,पिता का कोई उल्‍लेख होता नहीं है। अगर इस तरह देखें तो इस लघुकथा में पिता की अस्‍वस्‍थता की बात की आवश्‍यकता ही नहीं है। मां का यह कहना ही पर्याप्‍त है कि पता नहीं पके फल कब टपक पडे़।

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  12. किसी भी रिश्ते में समझ दोनों ओर से हो तो ऐसी आत्मीयता असंभव नहीं ...काश कि विदेश गया माँ का हर बेटा इसी तरह लौट आये अपनी माँ के पास ..
    पहली लघुकथा सामंजस्य , ममता का बहुत अच्छा सन्देश है ..

    दूसरी कहानी मन को उदास कर गयी ...!

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  13. दोनो लघुकथायें दिल को छू गयी। सुधा जी को बधाई। कई दिन से कम्पयूटर खराब था इस लिये किसी ब्लाग पर आ नही पाई। धन्यवाद।

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  14. अच्छी लगी आपकी दोनों लघु कथाएँ.

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  15. दोनों ही लघुकथाएँ पसंद आईं.

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  16. वरिष्ठ लेखकों की रचनाओं से हमेशा कुछ सीखने को ही मिलता है..

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  17. दोनों लघुकथाएं मर्मस्पर्शी है|

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  18. दोनों लघुकथाएं गहरे संवेदनाओं से परिपूर्ण बेहद मर्मस्पर्शी बन पड़ी हैं. पहली लघुकथा में जहां विश्वास को सच में बदलते देख आनंद की अनुभूति होती है, तो दूसरी लघुकथा में अपने परिवेश के कटु सच्चाईयों की सटीक अभिव्यक्ति दिखती है, जो मन को क्षुब्ध और अनमना कर जाती है. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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