उम्र थी तो किसी ने सिखाया ही नहीं
कि मुखौटे पहनना ज़रूरी है !
वक़्त हाथ से रेत की तरह फिसलने लगा
तो हर तरह के मुखौटे ले आई
......
मुखौटे पहनने से वितृष्णा होती है
ऐसे में लोगों से मिलने में कतराती हूँ
जब कोई रास्ता नहीं रह जाता
तो बेमन से एक मुखौटा पहन लेती हूँ
पर क्या फायदा !
मुखौटे के अन्दर मेरी मुस्कुराहट
बड़ी दयनीय हो जाती है
मैं खुद को ताले के अन्दर बन्द कर देती हूँ
.................
पर यही सुकून है कि हर किसी के दरवाज़े से
एक मुखौटा ले आई हूँ
ज़रूरत आने पर
कुछ तो सहूलियत होगी ...................................... रश्मि प्रभा








!! एक शाख वटवृक्ष की !!

सच के मुखौटे में
छिपा झूठ
बहुत दिन भरमा नहीं सका
गुलाब की पंखुड़ियों से झरकर
गुलाब का नग्न सत्य
दृश्य हुआ
तो कसकने लगी
गुलाब की डाली के काँटों की चुभन,
ठीक वैसे ही
सफेदपोशों के चेहरे का नकाब
जब उतरने लगता है
इंसां का इंसां में
विश्वास का भ्रम
टूटता है तब
उसमें बैठे हैवान की
तस्वीर उजागर होती है.
तस्वीर उजागर होती है.

रेखा श्रीवास्तव
मोबाईल न.०९३०७०४३४५१
http://kriwija.blogspot.com/
http://hindigen.blogspot.com/
http://rekha-srivastava.blogspot.com/
http://merasarokar.blogspot.com/
http://katha-saagar.blogspot.com/

12 comments:

  1. sunder kavita! rekha ji aap gadya evan padya dono vidhaon me nipun hain..

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  2. बहुत सुन्दर और सार्थक कविता

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  3. kavita bhaavpoorn hai, padhakar achchhaa lagaa

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  4. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना!

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  5. safedposh ki nakab jab utarti hai, to haiwaniyat se darshan ho jata hai......:)
    sachchi kaha rekha di aapne..!!
    bahut pyari prastuti.....!!

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  6. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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  7. भावपूर्ण रचना!

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  8. गुलाब की पंखुड़ियों से झरकर
    गुलाब का नग्न सत्य
    दृश्य हुआ
    तो कसकने लगी
    गुलाब की डाली के काँटों की चुभन,
    ठीक वैसे ही
    सफेदपोशों के चेहरे का नकाब
    जब उतरने लगता है
    बिलकुल सही कहा
    सुन्दर भावमय कविता। रेखा जी को बधाई।

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  9. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..............

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  10. बहुत सुन्दर रचना....

    रेखाजी बधाई

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  11. सच के मुखौटे में छिपा बदरंग झूठ ...
    जब जरूरत थी तब मुखौटे क्यूँ नहीं थे ...
    कविता और इसकी भूमिका दोनों ही बहुत भाई ...
    आभार ..!

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