प्यार - पहला प्यार , नासमझ उम्र की कशिश और अल्हड़ जज़्बात ! प्यार का इज़हार और वक़्त की उड़ान -
हाय अब वो कहाँ और हम कहाँ ! जाने कितनी तस्वीरें बनती हैं , मिटती हैं -
क्या उम्र से प्यार के एहसास बदल जाते हैं .... प्यार - यह एक जादुई शब्द है, जिसके जादुई इशारे उम्र के पाश में
नहीं होते ... भले ही कल्पनाओं में कई तरह के चेहरे उभरते हैं , पर प्यार की आँखों में वह ठहरा होता है , जब भी
कुछ कहता है, लिखता है - पहला प्रेम-पत्र सा होता है !

रश्मि प्रभा


( अपने जीवन के अनुभवों को औपन्यासिक रूप देने की मेरी योजना है। अनुभवों के टुकड़े कहानियों में पिरो रहा हूं। कुछ कहनियां बन गयी हैं, कुछ और पक रहीं हैं। अनुमान है कि कुल 25 कहानियां बनेंगी। वे स्वतंत्र रूप से कहानियां होंगी पर जब उन्हें विकास क्रम में एक साथ प्रस्तुत किया जायेगा तब वे अपने औपन्यासिक आस्वाद के साथ उपस्थित होंगी। उन्हीं में से एक कहानी यह भी है।)
मेरा पहला प्रेम-पत्र


डा. सुभाष राय


वो अब कैसी होगी। बहुत बदल गयी होगी। मिले तो शायद मैं न पहचान पाऊँ। चेहरे पर कहीं-कहीं झुर्रियों ने अपनी जगह जरूर बना ली होगी। आंखों के नीचे कालिख आ गयी होगी। बाल कम हो गये होंगे, कुछ सफेद भी हो गये होंगे। बच्चे भी हों शायद। उनकी चिंता भी होगी। उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनकी जरूरतें। पति से रिश्ते कैसे होंगे। अगर वह प्यार नहीं करता होगा तो वह और बुढ़ा गयी होगी। मैं भी तो बदल गया हूं। घर के अलबम में संभालकर रखी अपनी पुरानी तस्वीर देखता हूं तो खुद को ही पहचान नहीं पाता हूं। चेहरे की सारी मासूमियत वक्त ने छीन ली है। पहले से ही सांवला था, अब रंग कुछ और गहरा हो गया है। चश्मा पहनने से नाक पर गड्ढे बन गये हैं। बाल तो किशोर उम्र में ही इक्का-दुक्का सफेद होने लगे थे, अब तो नकली रंग ओढ़ना पड़ता है। सिर खाली हो गया है। पूरा खल्वाट तो नहीं मगर इतना ही कह सकता हूं कि लाज बची हुई है। कोई सामने से देखे तो बहुत बुरा नहीं लगूंगा लेकिन पीछे से उम्र के खंडहर साफ नजर आते हैं। अगर हम दोनों किसी बस स्टेशन या रेलवे प्लेटफार्म पर संयोगवश पास से गुजर जायें तो कोई किसी को नहीं पहचान पायेगा। समय सारे निशान मिटा देता है लेकिन यादें नहीं छीन पाता। वह मेरी स्मृति के किसी कोने में अभी भी बनी हुई है। सुंदर नैन-नक्श, कजरारी आंखें। एक पूर्ण युवा शरीर। कपड़ों के ऊपर मढ़े हुए शिखर और घाटियां। सलवटों में नाचती हुई नदियां। चहकती हुई चिड़िया जैसी। महंकते हुए बोल। हर मुस्कान में गुलाब की पंखड़ियां बरसाती हुई। दुपट्टे में अपने को छिपाने की कोशिश करती हुई। उसका बैठना, उठना, चलना, बोलना, मुस्कराना, ऐंठना, नखरे करना और गुस्सा होना सब मुझे पसंद था। मुझे उसके पास होने, उससे बतियाने का कोई भी मौका मिलता तो मैं उसे छोड़ता नहीं। हम दोनों साथ-साथ बड़े हुए थे, साथ-साथ खेले-कूदे थे, पढ़े थे। हमारा घर भी पास-पास ही था। कई बार मैं कोई बहाना ढूंढकर उसके घर पहुंच जाता। वह नहीं होती तो चाची से बतियाता, यह सोचता हुआ कि शायद वह पास ही कहीं गयी होगी, अभी आ जायेगी। गांव में उसके पापा सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे माने जाते थे। वे अखबार पढ़ते थे। मैं छोटा था, उन्हें पढ़ते हुए देखता तो रुक जाता। वे बड़े प्यार से हाल-चाल पूछते, पढ़ाई-लिखाई के बारे में उत्सुकता दिखाते, कभी-कभी सवाल भी पूछ लेते, पहेली हल करने को दे देते। फिर तो मैं पहेली हल करने की माथा-पच्ची में जुट जाता। अक्सर ऐसे मौकों पर वह आ जाती। या तो पापा के लिए दवाई लेकर या लाई-भूजा लेकर या फिर केवल पूछने के लिए कि वे खाना कब खायेंगे। मुझे बड़ी मुश्किल होती। किस तरह चाचा से आंखें बचाकर उसे देख लूं।

मुझे नहीं भूलता है, बचपन में आंधियां बहुत आती थीं, पानी भी खूब बरसता था। आंधी-पानी में मैं घर में कभी नहीं रहता। भींगने मैं बड़ा मजा आता था। पिताजी मक्के के खेत में छान डाल देते थे। बांस के डंडों पर पांच-छह फुट ऊपर खाट बांध दी जाती थी और उसके ऊपर घास-फूस की छान पड़ जाती थी। जब आम के फलने का मौसम होता तो बगीचे में भी ऐसी ही एक छान पड़ जाती थी। जब भी आकाश में घने बादल दिखते मैं भागकर या तो मक्के के खेत में या बाग में पहुंच जाता। तेज बारिश में छान के किनारे से टप-टप पानी का गिरना मन को मौसम के संगीत से सराबोर कर देता। जब कभी बादलों में गर्द-गुबार दिखता, पानी के साथ आँधी जरूर आती। जोर की हवाएँ पेड़ों को झकझोर देतीं। पके आम तो गिरते ही, कच्चे भी जमीन पर आ जाते। मैं ऐसी आंधियों में पके आम बटोरने में बहुत उस्ताद था। तब यह नहीं देखता कि किसके पेड़ का आम उठा रहा हूं। नहीं कहूंगा कि हमेशा पर कभी-कभी ऐसे मौसम में वह भी बाग में होती। अपनी दोस्तों के साथ खेलती हुई। एक बार मौसम खराब हो जाने पर बच्चे या तो उसका मजा लेते या कहीं पेड़ की आड़ में छिप कर हवाओं के थमने का इंतजार करते। घर भागने का मौका नहीं मिलता। सभी बुरी तरह भीग जाते। जब कभी वह भीगी हुई दिख जाती तो मेरे लिए वक्त जैसे थम जाता। मैं पलकें झुकाये चोरी से उसे देखने की कोशिश करता। वह मेरी ओर इसलिए देखती कि मैं उसे इस हालत में देख तो नहीं रहा हूं। मैं नजरें बचाकर तब उसे देख लेता, जब किसी पल उसकी नजरें इधर-उधर हो जातीं। जैसे ही वह मेरी ओर देखती, मैं कहीं और देखने लगता या पलकें गिरा लेता। तब हम किशोर भी नहीं हुए थे। बस मेरी मसें भींग रही थीं। मुझे संगीत, फूल, नदी और सितारों भरा आकाश अच्छा लगने लगा था। प्रेम कविताएं पढ़ते हुए भीतर ही भीतर कुछ बजने लगा था। कभी-कभी गुनगुनाने की नयी आदत पड़ने लगी थी। वह भी बचपन से बाहर निकल आयी थी। उसकी लापरवाही एकदम गायब हो गयी थी। हर पल सजग दिखती। अपना दुपट्टा संभालती। बाल करीने से रखने लगी थी। कपड़ों में रंग गाढ़े और चमकीले होने लगे थे। भीतर ही भीतर कुछ बदल रहा था।

तब मुझे पता ही नहीं था कि प्यार क्या होता है, शादी क्या होती है, रिश्ते क्या होते हैं। उसके पहले तक इतना मालूम था कि मेरी मां मुझे बहुत प्यार करती है। जब भी मैं कई दिन के लिए कभी बाहर चला जाता तो मेरे लौटने पर वह दो-चार बूंद आंसू जरूर बहाती। पिताजी मुझे प्यार करते थे या नहीं, यह तो नहीं कह सकता लेकिन अगर शाम को मेरे घर आने में थोड़ी भी देर हो जाती तो वे एक हाथ में लालटेन और दूसरे हाथ में डंडा लिए आवाज लगाते हुए बगीचे की ओर चल पड़ते। प्यार के इन रिश्तों से बेहद अलग कुछ था मेरा उसे चाहना। मैंने यह समझने की कोशिश कभी नहीं की कि कोई अच्छा क्यों लगने लगता है। वह भी कोई लड़की इस तरह मन के करीब क्यों आ जाती है। अगर मैं समझने की कोशिश करता भी तो नहीं समझ पाता। समझदारी आती है तो सहजता गुम हो जाती है। मैं इतना ही कह सकता हूं कि उस उम्र में समझदारी बिलकुल नहीं थी। मतलब यह कि समूची सहजता थी। यह सब अनायास ही हो रहा था।

थोड़ा और बड़ा हुआ तो खेलना-कूदना कम होने लगा। अपनी दुनिया अच्छी लगने लगी। प्रकृति का सौंदर्य लुभाने लगा था। मेरा कवि टूटी-फूटी कड़ियां जोड़ने लगा था। तुक के लिए कई बार कागज-कलम लिए घंटों गुनगुनाता रहता। एक पंक्ति बनती तो फौरन कागज पर उतार लेता। एक कविता का मुखड़ा अब भी भूला नहीं है, मैं भ्रमर बन धरा पर मिलूंगा प्रिये, तुम कमल बन कहीं पर खिलो तो सही। इस कविता को मेरे शिक्षक रामधारी ने अपने मधुर स्वर में पहली बार गाया तो मैं रोमांचित हो उठा था। मैंने बड़े-बड़े कवियों की ढेर सारी प्रेम कविताएं अपनी स्कूल की कापी में उतार ली थीं। वक्त मिलता तो उन्हें पढ़ता और अपने भीतर उठती आंधी को महसूस करता। एक दिन मन में आया कि क्यों न अपने मन की बात एक कविता के जरिये उसे भेजूं। मैंने राम नरेश त्रिपाठी की एक रचना एक धवल पृष्ठ पर सुंदर हरूफों में लिखी। रजनी को संबोधित किया और नीचे अपना नाम लिखा। वह मेरा पहला प्रेम-पत्र था, जिसमें मेरी ओरसे कुछ भी नहीं लिखा गया था। कवि की बात को मैंने अपनी बात की तरह पेश कर दिया था। उस तक पहुंचाऊँ कैसे, इस समस्या का कोई हल नहीं निकल रहा था। रोज जब स्कूल जाता, तब यह सोचकर उसे पाकेट में रख लेता कि आज उसे जरूर थमा दूंगा। घर आता तो जूते के मोजे में छिपाकर रख देता ताकि किसी की नजर न पड़े। इस तरह महीनों गुजर गये, पर मैं वह मजमून उसे सौंपने का साहस नहीं जुटा सका। बार-बार मोड़ने-खोलने में वह कागज धीरे-धीरे उधड़ने लगा। समय खिंचता गया और मैं उसे टुकड़े-टुकड़े होने से रोक नहीं पाया। किसी से मेरी पहली पेशकश आखिरकार एक दिन चिंदी-चिंदी होकर बिखर गयी। मैं उसे संभाल नहीं सका।

वक्त किसी का इंतजार नहीं करता। नवीं कक्षा में पढ़ने के लिए मैं शहर जाने लगा। उसका दाखिला गांव के पास ही एक कालेज में हो गया। पास होने के नाते वह पैदल ही कालेज जाती परंतु शाम को गांव की सभी लड़कियां झुंड बनाकर एक साथ लौटतीं। मैं साइकिल से स्कूल जाता था। सुबह स्कूल जाते हुए रास्ते में मैं अपनी साइकिल की चेन बार-बार उतारता-चढ़ाता। तब तक जब तक वह स्कूल जाती हुई दिख नहीं जाती। जिधर से होकर मैं निकलता था, उधर से ही होकर वह स्कूल जाती थी। जैसे ही वह निकलती, मेरी साइकिल एकदम ठीक हो जाती। शाम को जल्दी घर लौट आता। छत पर बैठा लड़कियों के झुंड की राह देखता। गांव में घुसते ही झुंड में शामिल लड़किया अपने-अपने घरों की ओर मुड़ जातीं। जैसे ही गांव में आती पगडंडी पर वे सब दिखतीं, मैं छत से नीचे आता, आईने में अपने को निहारता, बाल ठीक करता और सड़क की ओर चल देता। इसी रास्ते पर उसका घर था। कभी मैं उससे थोड़ा आगे होता तो कभी उसके पीछे। न मैं उसकी ओर देखता, न वह मेरी ओर। कुछ मिनट में ही वह अपने घर में दाखिल हो जाती और मैं सड़क की ओर बढ़ जाता। गांव में कभी कोई नौटंकी होती, मदारी आ जाता या किसी के यहां कोई जलसा होता तो भी उसे बिल्कुल पास से देखने का मौका मिलता। ऐसे मौके मैं कभी चूकता नहीं।

इसी तरह कई साल निकल गये। उस जमाने में लड़कियों के मन में अक्सर वही होता था, जो उनके मां-बाप सोचते थे। मैं नहीं समझता कि मैं जो कुछ करता रहा, उसे वह कोई अर्थ दे पायी होगी। मुझे यह भी नहीं मालूम कि अगर वह भी मुझे चाहती तो मैं क्या करता। आखिर उसकी शादी तय हो गयी। मैंने उससे मुलाकात का आखिरी मौका भी गंवाया नहीं। जब उसकी शादी का मंडप बन रहा था, तो मैं वहां मौजूद था। इस उम्मीद में कि शायद वह घर से निकले। पर उस दिन वह नहीं निकली।


डा. सुभाष राय
ए-१५८, एम आई जी, शास्त्रीपुरम, बोदला रोड, आगरा
फ़ोन-०९९२७५००५४१

25 comments:

  1. Kaash wah ghar se nikal gayi hoti, to fir shayad kahani hi kuchh aur hoti.

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  2. मेरा कवि टूटी-फूटी कड़ियां जोड़ने लगा था।
    kya bat hai sundar atisundar

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  3. ये पहला प्रेम पत्र तो काफ़ी रोचक है ……………आगे का इंतज़ार है।

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  4. भगवान श्री गणेश आपको एवं आपके परिवार को सुख-स्मृद्धि प्रदान करें! गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें!
    बहुत सुन्दर!

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  5. काफ़ी रोचक है , बहुत ही बढ़िया आलेख है ......

    इसे पढ़कर अपनी राय दे :-
    (आपने कभी सोचा है की यंत्र क्या होता है ....?)
    http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html

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  6. सचमुच काफी रोचक है यह प्रेम पत्र ....

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  7. संभव हो तो इसके आगे की कड़ी भी वटवृक्ष पर प्रकाशित हो, रवीन्द्र जी और रश्मि जी से गुजारिश है !

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  8. बहुत सुन्दर और अत्यंत रोचक लगा यह संस्मरण !

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  9. जाने कितने प्रेम ऐसे ही दम तोड देते हैं मगर क्या ये प्रेम है? शायद या नही भी या फिर उस उम्र का एक आकर्षण मात्र। इसके बारे मे आपका क्या कहना है? कहानी बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।

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  10. पढ़ते पढ़ते लगा कि उसी से शादी तय हो गयी ....प्रेम को तो अंतहीन होना चाहिए !

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  11. पता नहीं कैसा अजब संयोग है जो मैं लिखना चाहता हूं उसे सुभाष जी ही पहले लिख देते हैं। या कहूं कि अपनी भी ऐसी ही कहानी है कुछ कुछ। हां यह प्रेमपत्र तो नहीं है प्रेमकथा जरूर लगती है। बहरहाल है बहुत सच्‍ची ।

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  12. bahut hi sundarta se aapne kathanak ko bandhe rakha,kahise bhi laga hi nhi ki idhar se udhar ho raha he, jasie jaise padthe gaye, aage aur padhne ki lalsa utpann hoti gayi. ek Shaandar aapbiti,
    ya jo bhi he,
    agar ye sachhai he aapkim to ek prashn karunga,
    "Kya aaj aapko is batg ka afsos he ki aap , apni bat us tak nhi pahuncha paye"...

    kulmilakar shaandar lekhan

    badhai kabule DR Sahib

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  13. maan gaye sir!! aapke pahle pyar bhare prem patra me ek kasak hai........ek dard hai.......lekin fir bhi pyar to pyar hai!!

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  14. kahte hai koi bhi apne pahala pyar kabhi nahi bhulta.... bahut achhi premkatha prastuti.....

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  15. रोचक!!




    हिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!

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  16. यह प्रश्न तो है ही कि क्या ये प्रेम है या सिर्फ आकर्षण ...!
    रोचक कथा ..!

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  17. निश्छल प्रेम की पावन प्रस्तुति!

    पूरे उपन्यास की प्रतीक्षा रहेगी...

    शुभकामनाएं...

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  18. प्रेम पत्र काफ़ी रोचक है.
    इससे जयादा मेरे पास कोई बोल नहीं इस रोचक प्रेम पत्र के लिए.

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  19. khoobsoorat prem patr. aur bhi likha hota , yaadon ko sahejkar shabdon ka roop dete rahiye . abhivyakti aasma chhoegi !

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  20. behad khubsurat rachna...

    इस उम्मीद में कि शायद वह घर से निकले। पर उस दिन वह नहीं निकली।

    aur ant ki ye panktiya behad chu lene wali lagi...

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  21. aage kya hua?

    ek hi jagah rehte the....shaadi ke baad kabhi to mile hoge, dekha hoga?

    pyar ki nazar hai....dhondh hi liya hoga....hai na :)

    abhaar

    naaz

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  22. ...लगता है कि इस प्रेम पत्र का लेखक हर घर में मौजूद है!..उत्तम रचना!

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